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न मानने मात्र से नास्तिक नहीं कहला सकता। यदि ऐसा है, तो फिर सभी धर्म नास्तिक हो जायेंगे, क्योंकि यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि सभी धर्म क्रिया-काण्ड आदि के रुप में कहीं न कहीं एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं। दुःख है कि आज के प्रगतिशील युग में भी इन थोथी दलीलों से काम लिया जा रहा है और व्यर्थ ही सत्य की हत्या कर एक-दूसरों को नास्तिक कहा जा रहा है। वेदों का विरोध क्यों ?
जैन धर्म को वेदों से कोई द्वेष नहीं है। वह किसी द्वेष-बुद्धि के वश वेदों का विरोध नहीं करता है। जैन धर्म जैसा समभाव का पक्षपाती धर्म भला क्यों किसी की निन्दा करे ? वह तो विरोधी से विरोधी के सत्य को भी मस्तक झुका कर स्वीकार करने के लिए तैयार है। आप कहेंगे, फिर वेदों का विरोध क्यों किया जाता है ? वेदों का नहीं, वेदों के उन्हीं अंशों का विरोध किया जाता है, जिनमें अजमेध, अश्वमेघ आदि हिंसामय यज्ञों का विधान है। जैन धर्म हिंसा का स्पष्ट विरोधी है। फिर धर्म के नाम पर किये जाने वाले निरीह पशुओं की निर्मम हत्या तो वह किसी भी आधार पर सहन नहीं कर सकता। क्या जैन परमात्मा को नहीं मानते ? । __ जैन-धर्म को नास्तिक कहने के लिए आजकल एक और कारण बताया जाता है। वह कारण बिल्कुल ही बेसिर-पैर का है। लोग कहते हैं कि "जैन-धर्म परमात्मा को नही मानता, इसलिए नास्तिक है।"
हम पूछना चाहते हैं कि आपको यह कैसे पता चला कि जैन-- धर्म परमात्मा को नहीं मानता। परमात्मा के सम्बन्ध में जैन धर्म की अपनी एक निश्चित परिभाषा है। जो आत्मा राग-द्वेष से सर्वथा रहित हो, जन्म-मरण से सर्वथा मुक्त हो, केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त कर चुका हो, उसके न शरीर हो, न इन्द्रियाँ हों, न कर्म हो, न
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जैनत्व की प्राकी (112)
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