________________
क्षेत्र बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत है। उसका आदर्श, 'स्वयं आनन्द से जीओ और दूसरों को जीने दो', यहीं तक सीमित नहीं है। उसका आदर्श है-दूसरों को जीने में सहयोगी बनो, बल्कि अवसर आने पर दूसरे के जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति भी दे डालो।' वे उस जीवन को कोई महत्व नहीं देते, जो जन-सेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रहकर एक मात्र भक्तिवाद के अर्थशून्य क्रियाकाण्डों
में ही उलझा रहता है। - भगवान् महावीर ने एक बार अपने प्रमुख शिष्य गणधर गौतम को यहाँ तक कहा था कि मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन दुखियों खितों की सेवा करना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। मैं उन्हें अपना भक्त नहीं मानता, जो मेरी भक्ति करते हैं, माला फेरते हैं। किन्तु मैं उन्हें भक्त मानता हूँ, जो मेरी आज्ञा का पालन करते हैं। मेरी आज्ञा है"प्राणीमात्र की आत्मा को सुख, सन्तोष और आनन्द पहुँचाओ।'
- भगवान् महावीर का यह महान् ज्योतिर्मय सन्देश आज भी हमारी
आँखों के सामने हैं। इसका सूक्ष्म बीज 'उत्तराध्ययन-सूत्र' की .. सर्वार्थ-सिद्धि-वृत्ति में आज भी हम देख सकते हैं। वर्तमान परिस्थिति और अहिंसा
अहिंसा के महान् सन्देशवाहक भगवान् महावीर हैं। आज से अढ़ाई हजार वर्ष पहले का समय, भारतीय-संस्कृति के इतिहास में, एक प्रगाढ़ अन्धकारपूर्ण युग माना जाता है। देवी-देवताओं के आगे पशु बलि के नाम पर रक्त की नदियाँ बहाई जाती थीं, माँसाहार और सुरापान का दौर चलता था। अस्पृशयता के नाम पर करोड़ों की संख्या में मनुष्य अत्याचार की चक्की में पिस रहे थे। स्त्रियों को भी मनुष्योचित अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। एक क्या , अनेक रुपों में हिंसा की प्रचण्ड ज्वालाएँ धधक रही थीं, समूची मानव-जाति उससे संत्रस्त हो रही थी। उस समय भगवान् महावीर ने संसार को अहिंसा का अमृतमय सन्देश दिया। हिंसा का विषाक्त धीरे-धीरे शान्त
-
a
जैनत्व की झांकी (108)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.