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साधना की दृष्टि से संवर की कितनी उपादेयता है, वइ इस से स्पष्ट समझा जा सकता है।
दृष्टान्त निर्जरा
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संवर के बाद निर्जरा तत्व का स्थान है निर्जरा का अर्थ है - कर्मवर्गणा का अंश रूप में आत्मा से दूर हो जाना । बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो यों कह सकते हैं कि जिस प्रकार वस्त्र से मैल साफ हो जाता है, वृक्ष से फल झड़ जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा से कर्मफल का दूर हो जाना निर्जरा है । निर्जरा के दो प्रकार है- सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा । संवर भाव की विवेकपूर्वक साधना करके जो तप आदि किया जाता है, वह सकाम निर्जरा में आता है । और बिना ज्ञान तथा बिना संयम के जो तप आदि किया जाता है, वह अकाम निर्जरा है। जैन दर्शन विवेक और संयम के बिना किये जाने वाले अनशन आदि तप को बालतप कहता है । बालतप पुण्य-बन्ध का हेतु हो सकता है परन्तु उससे बन्धन - मुक्ति नहीं होती आत्मशुद्धि नहीं होती। आत्मा के ऊपर कर्मों का जो आवरण छाया हुआ है, उन्हें तपस्या आदि के द्वारा क्षय किया जाता है। बाह्य और आम्यन्तर रुप से तप के बारह भेद बताये गए हैं, इस दृष्टि से निर्जरा के भी बारह भेद हो जाते हैं।
अनशन (उपवास आदि), ऊनोदर (भूख से कम खाना), भिक्षाचरी (निर्दोष भिक्षा), रस-त्याग (स्वादिष्ट भोजन का परिहार), काय क्लेश (आसन आदि शारीरिक कष्ट ) - ये सब बाह्य तप की कोटि में आते हैं।
दह तप-साधना व्यवहार में प्रत्यक्ष दिखाई देती है, तथा दर्शक पर तुरन्त अपना प्रभाव भी डालती है, इसलिए इसे तप- साधना का बाह्य तप कहा गया है ।
प्रायश्चित्त (संयम में लगे दोषों का प्रक्षालन) विप्रय, यावृत्व (सेवा), स्वाध्याय, ध्यान (आत्मनिरीक्षण), व्युत्सर्ग ( बाहय उपाधि और
जैनत्व की झांकी (100)
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