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________________ हिंसा से निवृत्त होना-अहिंसा संकर है, इसी प्रकार असत्य आदि से विरत होना सत्य आदि संवर होते हैं। जैन परिभाषा में इनके निम्न नाम हैं हिंसा से विरत होना-प्राणातिपातविरमण संवर है। , असत्य से विरत होना-मृषावादविरमण संवर है। चोरी से विरत होना-अदत्तादानविरमण संवर है। मैथुन से विरत होना-मैथुनविरमण संवर है। परिग्रह से विरत होना-परिग्रहविरमण संवर है। इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना, अव्रती से व्रती होना, प्रमाद तथा क्रोध मान आदि कषाय से विरत होना एवं मन वचन और काय पर संयम करना, संवर है। संवर के कुल बीस भेद बताये गए जब तक आत्मा को बहिर्मुख प्रवृत्ति से रोका नहीं जाता, तब तक आत्मशुद्धि का प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। कल्पना कीजिए-एक आदमी किसी तालाब को खाली करने के लिए उसका पानी उलीच-उलीच कर बाहर कर रहा है, दिन-रात कड़ा परिश्रम कर रहा है, किन्तु एक ओर ज्यों ज्यों पानी निकल रहा है, त्यों-त्यों दूसरी ओर उसके नालों से धकाधक पानी आता जा रहा है। इस प्रकार तालाब जितना खाली होता है उससे कहीं अधिक भरता जा रहा है। इस स्थिति से कितना ही प्रयत्न किया जाये, किन्तु क्या कभी तालाब के खाली होने की सम्भावना है ? नहीं ! जब नालों को बन्द करके पानी उलीचा जायेगा तभी तालाब खाली हो सकता है। वही रुपक संवर का है। तालाब रुपी आत्मा में कर्मरुप पानी का है और वह आगे भी आस्रवरुप नाली द्वारा दिन-रात भरता ही जा रहा है। तप (निर्जरा) आदि के द्वारा कर्मजल को उलीच कर निकालने का प्रयत्न किया जाता है, पर जब तक संवर रुप में आस्रव निरोध (नाला बन्द) नहीं किया जाएगा, तब तक कर्म-जल से आत्म-सरोवर खाली नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only तत्व-विवेचन (99)ry.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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