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इसलिए यह कहा गया है कि कर्म करते और भोगते समय उसमें आसक्त नही होना चाहिए, जिसमें कि प्रथम तो कर्म बन्ध हो ही नहीं
और यदि हो भी तो अधिक प्रभावशाली न हो। - कर्म-बन्ध के स्वरुप को समझने के लिए दूसरा उदाहरण यह दिया जाता है कि जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर तेल लगाकर धूल में लेटता है, तो धूल उसके शरीर से चिपक जाती है। इसी प्रकार कषाय और योग के कारण जब आत्मप्रदेशों में कम्पन होता है, तब आत्मा के साथ कर्मवर्गणाओं का सम्बन्ध होता है, जो क्षीर-नीर अर्थात् दूध-पानी की तरह भिन्न-भिन्न होते हुए भी एकाकार दिखलाई पड़ता है।
बन्ध के चार भेद किये गये हैं, जो कर्मों के भिन्न-भिन्न स्वरुप, समय, मन्दता और तीव्रता आदि की सूचना देते हैं।
उनके नाम हैं
(१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) अनुभागबन्ध (रसबन्ध) और (४) प्रदेशबन्ध।
मिथ्यात्व आदि पूर्वोक्त पाँच आस्रवों से कर्म-बन्ध होता है, किन्तु मुख्य रुप से कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) और योग (मन आदि की प्रवृत्ति को ही बन्ध का कारण माना गया है। संवर
आस्रव का विरोधी तत्व “संवर' है। संवर का अर्थ है-कर्म आने के द्वार को रोकना तथा शुभाशुभ रुप सकाम प्रवृत्ति से निवृत्त होना। - पहले दिये गये उदाहरण में बताया गया है कि आस्रव कर्म रुप जल के आने की एक नाली है, उसी नाली को रोककर कर्म रुप के आने का रास्ता बन्द कर देना संवर है।
संवर एक निरोधक तत्व है। उसका कार्य आत्मा को राग-द्वेष-मूलक अशुद्ध प्रवृत्तियों से रोकना है।
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जैनत्व की झांकी (98) Jain Education International
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