________________
जाता है, वह तो अच्छा भी होता है। ___ इसका उत्तर यह है कि योग आस्रव के दो भेद किये गये हैं-शुभ-योग आस्रव और अशुभयोग आस्रव। आत्मा जब परोपकार, करुणा, सेवा आदि सत्कर्म में बंध होता है। इसके विपरीत जब आत्मा हिंसा, झूठ आदि असत्कर्म में प्रवृत्त होता है, तब अशुभयोग आस्रव होता है, उससे आत्मा पाप कर्म का बंध करता है। पाप सर्वथा हेय है, पुण्य प्रारम्भिक भूमिका में उपादेय है। __अध्यात्म-दृष्टि से पुण्य पाप दोनों ही बन्धन हैं, अतः हेय। बन्धन की दृष्टि से सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी में कोई अन्तर नहीं हैं। शुभ-अशुभ से हटकर शुद्ध दशा में जाना, यही आत्मा का लक्ष्य है। शुभ-अशुभ में विकल्प भाव है, सकाम भी है। निर्विकल्प एवं निष्काम भाव ही धर्म है, जो आत्मा को बन्धन-मुक्त करता है।
शुभ-अशुभ कर्म जब आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं-जिसे कर्म का लगना कहते हैं, उस अवस्था को बन्ध कहा गया है। आगम में बताया है कि जिस प्रकार कोई आदमी मिट्टी के दो गोले बनाए, एक गीला और दूसरा सूखा। जब गीले गोले को किसी दीवार पर मारा जाएगा, तो वह तुरन्त दीवार पर चिपक जाएगा और बहुत समय तक उसके साथ लगा रहेगा। किन्तु सूखा गोला जब दीवार से टकरायेगा, तो वह शीघ्र ही जमीन पर गिर जायेगा, वह दीवार के साथ अधिक समय तक चिपक कर नहीं रह सकेगा।
इस उदाहरण में कर्म-बन्ध की स्थिति को इस प्रकार समझाया गया है कि जब आत्मा के परिणामों में राग-द्वेष रुप गीलापन होगा, तो दस दशा में होने वाला कर्म-बन्ध गीले गोले की तरह आत्मा के साथ अधिक समय तक सम्बन्ध बनाये रहेगा और आत्मा की शक्तियों को ढंके रखेगा। इसके विपरीत जब कि रागद्वेष की मन्दता होगी, तो उस दशा में किये गये कर्म आत्मा के साथ सूखे गोले की तरह सम्बन्ध करेंगे, जो अल्पकालिक और अल्पप्रभाव वाले होंगे।
-
तत्व-विवेचन (97)
www.jainelibrary.org
Jain Education International
mational
For Private & Personal Use Only