SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य के कारण असंख्य हैं, फिर भी संक्षेप दृष्टि से दीन-दुःखी को देखकर करुणा से द्रवित हो जाना, उनकी सेवा करना, गुणीजनों के प्रति भाव रखना, भगवान् की स्तुति करना हितकारी मधुर वचन बोलना, दान देना, परोपकार करना इत्यादि गुण के अनेक भेद किये गये हैं । पाप के कारण भी तो असंख्य हैं, फिर भी संक्षेप में हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, क्रोध, अहंकार, कपट, लोभ, प्ररिनिंदा, ईर्ष्या, चुगली, आलस्य आदि पाप के कारण हैं। आस्रव जिन कारणों से आत्मा में कर्ममल आते हैं उन कारणों से जैन - परिभाषा में आस्रव कहा जाता है। एक रुपक की भाषा में बताया गया है कि आत्मा - रुप तालाब है, उस तालाब में कर्म-रुप जल हिंसा, असत्य आदि आस्रव नाली से आकर भरता रहता है। इसका अर्थ हुआ - आस्रव आत्मा में कर्म के आने का द्वार अथवा मार्ग है। आस्रव के पाँच भेद किये हैं (१) मिथ्यात्व, (२) अविरत, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग । तब मिथ्यात्व का अर्थ है विपरीत श्रद्धा । अज्ञान, मताग्रह एवं अभिनिवेश आदि के कारण जब तक विचार दृष्टि सत्याभिलक्षी नहीं होती, तक सत्य श्रद्धा प्राप्त नहीं हो सकती। शरीर आदि जड़ में चैतन्य बुद्धि, अतत्व में तत्व - बुद्धि और अधर्म में धर्म - बुद्धि आदि को विपरीत भावना एवं प्ररूपणता मिथ्यात्व है । इसी प्रकार अविरत = त्याग भावना का अभाव, प्रमाद = सत्कर्म में अनुत्साह, कषाय = क्रोध, मान, माया, लोभ और योग = मन, वचन तथा शरीर की शुभाशुभ प्रवृत्ति आस्रव है। प्रश्न हो सकता है कि पहले चार आस्रव तो सदा बुरे ही हैं, अतः वे तो आस्रव ठीक हैं, परन्तु इनके साथ योग को भी आस्रव क्यों कहा जैनत्व की झांकी (96) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy