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________________ अजीव है। अजीव को जड़ भी कहते हैं; सांख्य दर्शन में इसी जड़ का प्रकृति के नाम से वर्णन किया गया है। जगत् के समस्त पदार्थों को इन दो तत्व में बाँटा जा सकता है। जितने भी प्राणी है, चाहे वे कीट-पतंग आदि त्रस जंगम हैं, या वनस्पति आदि स्थावर हैं, सूक्ष्म हैं या बादर (स्थूल) हैं देव, नारक हैं या तिर्यञ्च (पशुपक्षी आदि) और मनुष्य हैं, जिनमें भी चेतना है तथा अनुभूति करने की क्षमता है, फिर भले ही वह व्यक्त हो अव्यक्त वे सब जीव हैं। इसके विपरीत् जगत् के समस्त जड़ पदार्थ ईट, चूना, पत्थर, लकड़ी, कागज, लोहा, सोना, चाँदी आदि जितनी भी भौ तक वस्तुएँ तथा आकाश, काल आदि अमूर्त जड़ द्रव्य हैं, वे सब अजीव कोटि में आते हैं। पुण्य-पाप ___ शुभ कर्म को पुण्य कहते हैं और अशुभ कर्म को पाप। ये भी अजीव हैं। प्रश्न हो सकता है कि शुभ और अशुभ कर्म तो आत्मा का शुभाशुभ भावरुप प्रवृत्तियाँ हैं, इन्हें अजीव क्यों कहा गया। जीव की आन्तरिक भावप्रवृत्ति जीवरुप ही होती है, अजीवरुप नहीं। इसका समाधान यह है कि आत्मा की शुभाशुभ वृत्ति एवं प्रवृत्ति को तो मन, वचन, कार्यरुप योग आस्रव के अन्तर्गत रखा गया है। यहाँ पर पुण्य-पाप से इतना ही अपेक्षित है कि शुभाशुभ प्रवृत्ति के द्वारा जो कर्म पुद्गल आत्मा के साथ सम्बद्ध होते हैं, शुभ कार्य के पुद्गल पुण्य, और अशुभ कर्म के पुद्गल पाप संज्ञा से सूचित किये गये हैं। आत्मा की शुभाशुभ भावरुप प्रवृत्ति को भाव पुण्य-पाप कहते हैं और प्रवृत्ति के अन्तर आत्मा के साथ जड़ कर्म के रुप में पुद्गलों का जो सम्बन्ध होता है, वह द्रव्य पुण्य-पाप है। इस प्रकार भावरुप पुण्य-पाप जीव के क्षेत्र में आते हैं और द्रव्य रुप पुण्य-पाप अजीव जड़ के रुप - - - - - ___Jain Education International For Private & Personal Use Only सत्व-विवेचना (95)ary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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