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________________ १८ जैन-धर्म की पृष्ठभूमि के रुप में इतिहास, परम्परा और प्राचीनता के सम्बन्ध में पिछले अध्यायों में बताया गया है, अब उसका तात्विक एवं दार्शनिक स्वरुप भी समझना है, अतः सर्वप्रथम तत्वस्वरुप की जानकारी के लिए पढ़िए प्रस्तुत निबन्ध | तत्व - विवेचन 'तत्व' शब्द हमारे व्यवहार में इतना अधिक प्रचलित और व्यापक बन गया है कि उसकी परिभाषा करने की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। फिर भी शाब्दिक दृष्टि से संक्षेप में विचार करें, तो उसका अर्थ होगा- 'तस्य भाव तत्वम् - अर्थात् अस्तित्वहीन दर्शन के अनुसार, असत् से सत् का निर्माण नहीं होता। अभाव से भाव की स्थिति नहीं होती । गधे के सिर पर सींग की तरह जो असत् हो, वह तत्व कैसे हो सकता है ? तत्व का एक और भी व्यावहारिक अर्थ हैं। वह यह कि जैनधर्म साधना का धर्म है। वह अनादि काल से चले आ रहे आत्मा के अशुद्ध रूप को दूर कर शुद्ध स्वरुप की उपलब्धि का मार्ग प्रस्तुत करता है । अतः स्वरुप- साधना की दृष्टि से सर्वप्रथम चैतन्य और जड़ का भेद विज्ञान आवश्यक है। इसके साथ ही, चैतन्य और जड़ का परस्पर संयोग-वियोग एवं संयोग-वियोग के हेतुओं का परिज्ञान भी जरुरी है । अस्तु, साधक को बन्धन - मुक्त होने के लिए, आत्मा और उसकी शुद्ध एवं अशुद्ध आदि जिन विभिन्न स्थितियों का परिबोध अनिर्वाय रुप से अपेक्षित है, वे सब भी दर्शन के क्षेत्र में तत्व कहे जाते हैं। जैन - तत्वज्ञान की भी यही आधारशिला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only तत्व-विवेचन (93) www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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