________________
शरत
B
दुष्ट मेघ ! वृथैव क्यों,
मेघ
दे रहा है क्यों जगत को, लोभ - हर्षण
करता है भीषण गर्जना |
तर्जना ॥
पूयाम कर स्वशरीर सारा,
चंचला
मूढ !
तू डराता है किसे ?
तू बनाता
घूमता - फिरता गगन में,
Jain Education International
चमका चमत्कृत,
सिमट कर आता कभी,
क्या निशाचर की तरह ?
छोड़ता धारा कभी - कभी,
कण कृपण नर की तरह । छलछेकता महती दिखाता,
कुहक - जीवी की तरह ॥
है किसे ?
अति क्रुद्ध भालू की तरह ॥
जब उत्तप्त थी,
शुष्क थे जलस्रोत सारे,
बूंद थी
ग्रीष्म ऋतु से सब मही ।
।
दिखती नहीं ॥
बाट जोहती थी कृषक - नर, मँडली
तेरी
[ २५ ]
यदा ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org