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जीवन का रहस्य
एक पाप नहीं, अनेक पाप एकत्र हो जाते हैं । सबसे पहले राग ने आपकी यात्रा स्थगित की, फिर कर्त्तव्य का विस्मरण कराया, आदेश का भंग कराया और अन्त में चोरी करने के लिए भी आपको बाध्य कर दिया । जिस समय तक आपके हृदय में राग भाव नहीं था, आप बड़े आनन्द से यात्रा कर रहे थे और अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे थे, किन्तु राग-भाव के आते ही पथभ्रष्ट हो गये । रागभाव के उद्रेक से मनुष्य की ज्ञान - शक्ति एवं विवेक शक्ति कुण्ठित हो जाती है । कषाय भाव के वशीभूत होकर यह आत्मा भयंकर से भयंकर पाप को करने के लिए तैयार हो जाता है । पापाचार और भ्रष्टाचार को भी वह अपना कर्त्तव्य समझने लगता है, यही रागी आत्मा की सबसे भयंकर भूल है 1 जिस समय आत्मा रागान्ध हो जाता है, उस समय आँखें होते हुए भी वह कुछ देख नहीं पाता और कान होते हुए भी वह कुछ सुन नहीं पाता । इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण करें, यहाँ तक किसी प्रकार का पाप नहीं है, परन्तु जब मन उसमें राग-द्वेष की वृत्ति उत्पन्न कर देता है, तब आत्मा बन्धन बद्ध हो जाता है ।
प्रश्न किया जा सकता है, कि राग कहाँ से आया ? राग कहीं बाहर से नहीं आया, वह तो अन्तर में प्रसुप्त पड़ा था, निमित्त मिलते ही प्रबुद्ध हो उठा । जिस समय मन के सरोवर में राग की तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं, उस समय आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर नहीं रह पाता । वह इन्द्रियों और मन की वृत्ति में रम जाता है । अपने स्वरूप को भूल कर जिस समय आत्मा विभाव- दशा में पहुँच जाता है, उस समय वह अपनी इन्द्रियों का और मन की स्वामी न रहकर दास बन जाता है । बाह्य पदार्थ में आत्मा को बाँधने की शक्ति नहीं है, आत्मा का राग और आत्मा का द्वेष ही उसे बाँधता है । कर्म-बन्ध क्या है ? यह भी एक प्रश्न है, जिसका समय - समय पर तत्व - चिन्तकों ने उत्तर दिया है । कर्म का बन्ध बिना राग और द्वेष के नहीं होता है । जैन दर्शन के अनुसार राग-द्वेष ही कर्म - बन्ध के मूल कारण हैं । राग और द्वेष हो, पर कर्म-बन्ध न हो, यह कभी सम्भव ही नहीं है । कारण के होने पर कार्य अवश्य ही होता है । इसके विपरीत यदि राग और द्वेष नहीं हैं, तब आप कहीं पर भी रहें और कहीं पर भी जाएँ, आपको कर्म का बन्धन नहीं हो सकता । जैन दर्शन में कर्म के आठ भेद माने गये हैं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । ये
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