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समाज और संस्कृति
द्वेष ही हमारे चित्त को विक्षुब्ध बनाते हैं । राग-द्वेष के वशीभूत होकर जब चित्त विक्षुब्ध हो जाता है, तब वह आत्ममुखी न होकर इन्द्रियमुखी बन जाता है । इसी को असंयम अथवा अचारित्र कहा जाता है । अपने निज स्वभाव में स्थिर रहना, संयम है और बाह्य पदार्थों में संलग्न रहना, जो बाह्य पदार्थ अपने नहीं है, उन्हें अपना समझकर उनका ममता में बँधना ही सबसे बड़ा असंयम है । यह असंयम ज्ञान स्वरूप आत्मा का अपना स्वभाव कभी नहीं हो सकता ।
मैं आपसे संयम और चारित्र की बात कह रहा था । चारित्र आत्मा का निज गुण है, किन्तु जब चारित्र में राग और द्वेष का अंश मिल जाता है, तब वह बन्धन का कारण बन जाता है । विचार कीजिए, कि आप कहीं जा रहे हैं, आपके मार्ग में फूलों का एक बाग आ गया, बाग में रंग-बिरंगे फूल हैं, जिनकी महक दूर से ही मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है, आँखों से आप फूलों के रंग को देख रहे हैं और नाक से उनकी महक का आनन्द ले रहे हैं, अभिप्राय यह है, कि आप एक ऐसे वातावरण में पहुँच गये, जिसे आप बहुत पसन्द करते हैं । एक से एक सुन्दर फूल को देखकर आप प्रसन्न हो जाते हैं । आपकी मनोवृत्ति इतनी अधिक चंचल हो उठती है, कि आप सब कुछ भूलकर अपने आपको उसी वातावरण में तल्लीन कर लेते हैं । उस बाग के प्रति आपके मन में एक प्रकार का लगाव उत्पन्न हो गया, जिसे शास्त्रीय भाषा में राग कहा जाता है । उस राग-रंग में आप इतने अधिक मस्त हो गये, कि आप अपनी यात्रा को भूल गये, अपने कर्तव्य को भूल गये, सम्भवतः किसी रोगी की सेवा करना आपके लिए आवश्यक था, उसे भी आप भूल गये, यह सब क्या है ? यह राग-भाव है । जिस समय मनुष्य के हृदय में राग का उदय होता है, उस समय वह सब कुछ भूल बैठता है । उसे यह स्मरण भी नहीं रहता है, कि मैं कहाँ पर हूँ और मेरा क्या कर्त्तव्य है ? बाग में पहुँचकर आपके हृदय में जिस राग-भाव का उदय हुआ था, उससे आप केवल अपनी यात्रा ही नहीं भूले, बल्कि अन्य अनेक अनर्थ भी उससे पैदा हो गये । आपने अपनी मन पसन्द का एक फूल तोड़ लिया, यद्यपि आप यह भली-भाँति जानते हैं, कि फूल तोड़ना मना है, फिर भी आप राग के वशीभूत होकर अपने मन पसन्द फूल तोड़ लेते हैं । राग-भाव के कारण बाग के स्वामी के आदेश का भंग करना पड़ा और फूल की चोरी करनी पड़ी । जहाँ राग होता है, वहाँ
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