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________________ समाज और संस्कृति आठ कर्म हैं जो प्रतिक्षण आत्मा के साथ सम्बद्ध रहते हैं । इस अष्ट-विध कर्म का मूल कारण राग और द्वेष ही है । इन आठ कर्मों में सर्वाधिक प्रबल एवं भयंकर मोहनीय कर्म है । मोहनीय कर्म से ही राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है । मोहनीय कर्म के अतिरिक्त शेष जितने कर्म हैं, वे स्वयं बन्धन होते हुए भी आत्मा को बन्धन में नहीं डालते हैं । ये भोग्य कर्म हैं, भविष्य के लिए बन्धक कर्म नहीं है । बन्धक कर्म केवल एक मोह है । मोह के साथ ही अन्य कर्म भी शक्ति-शील रहते हैं । मोहनीय कर्म का अभाव होते ही, शेष कर्म भी शक्ति-हीन बन जाते हैं । मोहनीय कर्म का अभाव होते ही उसके अन्तर्मुहूर्त बाद ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का भी अभाव हो जाता है । फिर चार अघाती कर्म ही शेष रह जाते हैं, जिनका प्रभाव आत्मा पर नहीं पड़ता । कर्म-शास्त्र के इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मा को बन्धन में डालने वाला कर्म मोहनीय कर्म ही है । मोहनीय कर्म के कारण ही आत्मा की संयम शक्ति एवं आत्मा की दर्शन शक्ति पर आवरण आता है । मोहनीय कर्म के कारण ही आत्मा की अन्य शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं । इसका अर्थ इतना ही है, कि सुख में सुख-बुद्धि और दुःख में दुःख-बुद्धि भी राग और द्वेष के कारण ही होती है । मोहनीय कर्म सबसे अधिक प्रबल कर्म माना जाता है । मैं आपसे कर्म-बन्धन की बात कह रहा था । आत्मा को बन्धन में डालने वाला कौन सा कर्म है ? क्या ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म आत्मा को बन्धन में डालता है ? नहीं, इन कर्मों में आत्मा को कर्म-बन्धन में डालने की शक्ति नहीं है । कल्पना कीजिए, आपके सामने एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसे अभी तक आपने पढ़ा नहीं है । जिस ग्रन्थ का आपने अध्ययन किया है, उस ग्रन्थ का ज्ञान तो आपके पास है, किन्तु जिस ग्रन्थ का अभी तक आपने अध्ययन नहीं किया, उस ग्रन्थ का अज्ञान भी आपके पास है, किन्तु इतने मात्र से ही आप बन्धन में नहीं पड़ जाते । जब तक उस अज्ञान के साथ राग और द्वेष नहीं होगा, तब तक वह अज्ञान आपको बांध नहीं सकता । एक व्यक्ति अन्धा है, उसे वस्तु के रूप का ज्ञान नहीं होता है । क्या वह रूप ज्ञान के न होने से कोई नया कर्म बांध रहा है ? इसी प्रकार बहरा व्यक्ति भी केवल शब्द श्रवण के अभाव में कर्म-बन्धन नहीं करता है । यही बात दर्शन और अन्तराय - - ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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