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समाज और संस्कृति
रहा था । यद्यपि उस समय भारत स्वतन्त्र नहीं था, किन्तु भारत के नेता अपने देश की स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए प्रयत्न कर रहे थे । सीमान्त गाँधी अब्दुल गफ्फार खाँ उस समय देहली में आए हुए थे । एक सज्जन उन्हें स्थानक में ले आए । उस समय उपस्थित सज्जनों में अतिथि - सेवा का प्रसंग ही चल रहा था । भारतीय संस्कृति के अनुसार अतिथि सेवा का क्या महत्त्व है, यह मैं बतला रहा था । उसी संदर्भ में सीमान्त गाँधी ने भी अपने प्रदेश की एक परम्परा सुनाई और कहा कि हमारे उधर गरीबी बहुत होती है । इतनी अधिक गरीबी होती है, कि इधर के लोग उसका अनुमान नहीं लगा सकते । बेहद गरीबी होने पर भी एक पठान अपने घर पर आए हुए मेहमान की सेवा करना नहीं भूलता । किसी पठान के घर पर जब कोई मेहमान आता है, तब उसके लिए दस्तरखान लगाते हैं । उस पर भोजन सामग्री रख दी जाती है, फिर ऊपर से उसे एक स्वच्छ वस्त्र से ढक दिया जाता है । यह सब कुछ तैयारी हो जाने पर मेजवान मेहमान को बुला कर लाता है । मेजवान मेहमान से भोजन करने से पूर्व हाथ जोड़ कर कहता है, कि 'कृपा करके आप इस दस्तरखान पर जो सामग्री रखी है, उस भोजन सामग्री की तरफ ध्यान मत दीजिए, खुदा के लिए आप मेरे चेहरे की ओर देखिए ।' कहने का अभिप्राय यह, कि दस्तरखान पर कोई सुन्दर सामग्री नहीं है, वह तो एक साधारण भोजन है, किन्तु मेरे मुख की ओर देखो, कि मैं किस प्रेम और श्रद्धा के भाव से और किस आदर भाव से आपके सामने भोजन प्रस्तुत कर रहा हूँ । मेरे इस भोजन को आप मत देखिए, किन्तु आप यही देखिए कि किस प्रेम और हृदय के किस स्नेह से आपको भोजन दिया जा रहा है । पठान संस्कृति का निश्चय ही यह सिद्धान्त बहुत ऊँचा है । मेजवान के शब्दों में उसकी इंसानियत बोलती है । पठान - संस्कृति भी भारत की ही एक आर्य संस्कृति है । दान में वस्तु नहीं देखी जाती । देने वाले की भावना देखी जाती है । देने वाले की भावना यदि उज्ज्वल और पवित्र है, तो अल्प वस्तु अथवा तुच्छ वस्तु का दान भी महान् फल प्रदान करता है । इसके विपरीत यदि दी जाने वाली वस्तु अधिक मूल्यवान है, किन्तु भावनापूर्वक नहीं दी गयी है, तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं होता । इसीलिए भारतीय संस्कृति में यह कहा गया है कि किसी प्रकार के सत्कर्म को करने से पूर्व यह देखो कि उसके पीछे भावना क्या है ? भावना से और मधुर
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