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________________ विकल्प से विमुक्ति विचार से किया गया प्रत्येक सत्कर्म जीवन के उत्थान और कल्याण के लिए होता है । अतिथि-सत्कार हो अथवा किसी दीन अनाथ की सहायता हो, सर्वत्र भावना का ही अधिक मूल्य है । मैं आपसे सेठ के पुत्र की बात कह रहा था । उसके पिता के मित्र जौहरी ने उसको बड़े प्रेम से भोजन कराया और फिर बहुत ही मधुर स्वर में यह पूछा-'आज बहुत दिनों बाद इधर आए हो, इतने दिनों तक कहाँ पर रहे ? कभी-कभी मिलने के लिए तुम्हें अवश्य आना चाहिए । मेरे घर पर आने में तुम्हें किसी भी प्रकार का संकोच करने की आवश्यकता नहीं है । जितना प्रेम में अपने पुत्र से करता हूँ, उतना ही प्रेम मैं तुमसे भी करता हूँ । जिस प्रकार एक पुत्र को अपने पिता के घर पर आने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होता है, उसी प्रकार तुम्हें भी मेरे घर पर आने में संकोच नहीं होना चाहिए ।' सेठ के पुत्र ने विनम्र भाव से कहा 'आपकी मुझ पर बड़ी कृपा है । आपके इस प्रेम और मधुर स्नेह को मैं अपने जीवन में कभी भूल नहीं सकूँगा ।' फिर सेठ के पुत्र ने अपने जीवन की वह सारी कहानी कह सुनाई, जो धन के अभाव में उसके जीवन में घटित हुई थी । सेठ के पुत्र ने बड़े ही करुण स्वर में यह कहा-"जब तक धन था सब मुझसे प्रेम करते थे, किन्तु अब कोई भी रिश्तेदार मेरे समीप नहीं आता । मैं अब किसी धन्धे या व्यापार में लगना चाहता हूँ । मुझे विश्वास है कि आपका मार्ग-दर्शन ही मेरे मार्ग को प्रशस्त करेगा ।" यह कह कर सेठ के पुत्र ने तावीज में से निकले हीरे को जौहरी के सामने रखा और कहा कि "इसके अतिरिक्त मेरे पास अन्य कुछ सम्पत्ति नहीं है जो कुछ है सो यही है । इसका जो भी मूल्य हो उसी के अनुसार आप मुझे कुछ धन्धा बताएँ जिसे मैं कर सकूँ, यही मैं आपसे चाहता हूँ ।" जौहरी ने बहुत ही प्रेम भरे शब्दों में सेठ के पुत्र को कहा-"क्या तुम्हें यह मिल गया ? कहाँ मिला तुम्हें यह ? तुम्हारे पिता ने यह हीरा मेरी दुकान से ही खरीदा था । इसका बहुत बड़ा मूल्य है और इसको खरीदने के लिए तुम्हारे पिता ने इतना मूल्य चुकाया था, कि मैं तुम्हारे सामने उस मूल्य की बात कहूँ, तो तुम्हें विश्वास आए या नहीं, मुझे सन्देह है । मैं यह सोचता रहता था, कि वह हीरा आखिर कहाँ गया ? तुम तो बच्चे थे । तुम्हें तो मालूम भी नहीं था, कि कोई हीरा भी खरीदा गया था । मैंने भी तुमसे चर्चा इसलिए न की थी कि उस हीरे - ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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