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विकल्प से विमुक्ति
किया है, उसमें अतिथि का भी संविभाग रखो । जरा ध्यान से सुनिए
और पढ़िए, भगवान महावीर ने अतिथि-दान शब्द का प्रयोग नहीं किया, बल्कि अतिथि-संविभाग का प्रयोग किया है । दान में और 'संविभाग' शब्द में बहुत बड़ा अन्तर है । दान में दया की भावना रहती है और संविभाग में बराबर के अधिकार की भावना रहती है । कल्पना कीजिए, एक पिता के चार पुत्र हैं और चारों का बँटवारा हो रहा है । पिता की मृत्यु के बाद चारों भाइयों ने पिता की सम्पत्ति के चार विभाग कर लिए । चारों ने अपना-अपना भाग ग्रहण कर लिया । तो क्या चारों ने एक दूसरे को वह दया से दान दिया है ? नहीं, इसे दान नहीं कहा जाता, इसे भाग और अपना अधिकार कहा जाता है । जैसा अधिकार अपनी पिता की सम्पत्ति में सब भाइयों का होता है, वैसा ही अधिकार उस अतिथि का भी समझो, जो आपके द्वार पर आ गया है । भगवतीसूत्र में वर्णन आता है, कि श्रावक अपने घर के द्वार को सदा खुला रखते हैं । न जाने किस समय उनके द्वार पर अतिथि आ जाए । द्वार पर आए हुए अतिथि को जो कुछ दिया जाता है, उसे भगवान महावीर ने दान की संज्ञा न देकर 'संविभाग' कहा है । भगवान महावीर ने कहा है.-"असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ।" जो व्यक्ति असंविभागी है, अपनी सम्पत्ति में अतिथि का संविभाग नहीं करता, निश्चय ही उस व्यक्ति की मुक्ति कभी नहीं हो सकती । भगवान महावीर ने जो कहा है-वैसा ही वैदिक परम्परा का एक ऋषि भी कहता है-“अधं स केवलं भक्ते ।" भोजन की वेला में घर पर आए हुए अतिथि को जो अपने भोजन में से कुछ देता नहीं है, वह व्यक्ति भोजन नहीं करता, बल्कि पाप का भक्षण करता है । पाठक समझ गये होंगे, कि वैदिक संस्कृति में और जैन-संस्कृति में अतिथि-सेवा का कितना बड़ा महत्व है । आप अपने घर पर आए हुए अतिथि को क्या देते हैं, इसका कोई महत्व नहीं है । महत्व वस्तु का नहीं, मनुष्य के हृदय के भाव का होता है । यदि आपने स्नेह-भरे हृदय से अतिथि को सूखे चने ही दिए हैं, तो उनका भी बड़ा महत्व है, और यदि आपने भावना शून्य हृदय से अतिथि को मधुर पक्वान्न भी खिलाया है, तो उसका कोई महत्व नहीं है । अतिथि सेवा में मूल्य वस्तु का नहीं होता, भावना का ही होता है ।
एक बार जब कि मैं देहली में था । बात बहुत पुरानी है, उस युग की, जब कि देश में स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन पूरे वेग से चल
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