SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाज और संस्कृति हो ? पहले स्नान करो और फिर तुम और हम साथ-साथ भोजन करेंगे । जौहरी के इन शब्दों में एक जादू था, एक माधुर्य था और एक अद्भुत आकर्षण । उसने ऐसा प्रेम या तो अपने पिता से पाया था, या फिर आज उनके मित्र से पा रहा है । सेठ के पुत्र को आज एक पिता का हृदय मिला था । स्नेह-रस से भरे शब्दों को सुनकर वह पुलकित हो उठा । आज उसने यह अनुभव किया; कि संसार में सभी स्वार्थी नहीं होते हैं, कुछ परमार्थी भी होते हैं । सेठ के पुत्र ने उस जौहरी से विनम्र शब्दों में कहा-"नहीं, भोजन मैं नहीं करूँगा ।" भोजन की आवश्यकता होने पर भी लज्जावश उसने इन्कार कर दिया । कुल और वंश का अभिमान मनुष्य को भूखे रहने के लिए बाध्य भले ही कर दे, किन्तु किसी के सामने हाथ पसारने के लिए बाध्य नहीं कर सकता । जौहरी ने उस सेठ के पुत्र को अपना ही पुत्र समझ कर कहा-“अरे भाई, इसमें क्या बात है, मेरे लिए तुम पुत्र के समान हो और पिता के घर पुत्र को खाना खाने में क्या आपत्ति हो सकती है ? आज तो तुम्हें यहाँ खाना, खाना ही पड़ेगा । तुम अपनी इच्छा से भोजन नहीं करते हो, तो मेरी इच्छा से ही कर लो । माना कि तुम्हें भूख नहीं है, तो आज बिना भूख के ही मेरे कहने से खालो ।" सेठ का पुत्र लज्जा से इतना अभिभूत हो चुका था, कि उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला और वह भोजन करने के लिए बैठ गया । भारतीय संस्कृति का यह एक शाश्वत सिद्धान्त है, कि घर पर आए हुए अतिथि की सेवा अवश्य करो । अभ्यागत एवं अतिथि संसार का सबसे बड़ा देवता है । कम से कम जल, भोजन और बैठने के लिए उसे आसन तो अवश्य ही देना चाहिए । घर पर आए हुए अतिथि की सेवा का महत्व बताते हुए महर्षि मनु ने तो एक बहुत बड़ी बात कही है। मनु का कथन है कि किसी के द्वार पर कोई अतिथि आए और वह आने वाला अतिथि उस गृहस्थ के घर से निराश लौट जाए, तो वह उस गृहस्थ के पुण्य के फल को लेकर लौट जाता है । कोई किसी के पुण्य के फल को ले सकता है अथवा नहीं ले सकता, यह एक तर्क और विवाद का विषय है । किन्तु मनु के कथन का अभिप्राय इतना ही है, कि घर पर आए हुए अतिथि की सेवा अवश्य करो । जैन-परम्परा में अतिथि-सेवा का अत्यधिक महत्व बताया गया है । श्रावक के. द्वादश व्रतों में द्वादश व्रत है—अतिथि-संविभाग । इसका अर्थ है कि जो कुछ तुमने प्राप्त - ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy