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समाज और संस्कृति
चाहता है कि मेरा आदर हो, मेरा सत्कार हो और लोग मेरा सम्मान करते रहें । प्रत्येक व्यक्ति इस क्षणभंगुर संसार में अपने आपको अजरअमर बनाने की अभिलाषा रखता है । वह यह नहीं सोच पाता, कि इस विनाशशील संसार में कौन अजर-अमर होकर रहा है । एक बार की बात है, कि मैं शिवालक प्रदेश में एक ऊँचे पर्वत पर बने किसी पुराने किले को देखने के लिए गया था । मैंने यह सुना था कि यह एक बहुत पुराना किला है और इतिहास की दृष्टि से इसका बहुत बड़ा महत्व है । दिमाग में कुछ पुरानी चीजों को देखने की उत्सुकता रहती है । पहाड़ की चढ़ाई करके मैं उस किले में पहुँचा । मैंने वहाँ देखा कि उसकी टूटी दीवारों और बिखरे पत्थरों पर आगन्तुक लोगों ने अपने नाम लिख रखे हैं । किसी ने पेंसिल से, किसी ने पेन से, किसी ने कोयले और किसी ने अपने चाकू की नोक से ही वहाँ पर अपना नाम अंकित किया है । मैंने सोचा कि अपने नाम को स्थायी करने की कितनी तीव्र अभिलाषा मनुष्य के मन में रहती है । यह बात किले की ही नहीं है, धर्मशाला और अन्य सार्वजनिक स्थानों की भी यही दशा रहती है, कि आने वाले लोग उस पर अपना नाम लिख डालते हैं । जब कभी मैं ऐसे स्थानों को देखता हूँ तब सोचा करता हूँ कि ये लोग अपने नाम को लिखकर संसार में अमर बनने की कितनी बड़ी कामना लिए हुए हैं । ये लोग यह नहीं सोचते कि जब इन किले बनाने वालों के नाम ही संसार में शेष नहीं रहे, तो इन मृत कलेवरों पर लिखे गये हमारे नाम संसार में कैसे शेष रहेंगे ।
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हम देखते हैं कि कहीं पर जीवन का मोह, कहीं पर धन की आसक्ति और कहीं पर यश एवं प्रतिष्ठा का व्यामोह मनुष्य को उसकी साधना में सफल नहीं होने देता । मोह और भय को दूर करने का एक मात्र साधन वैराग्य ही है । जब तक मनुष्य के मन में वैराग्य की तीव्र ज्योति नहीं जगेगी, तब तक वह अपनी साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर
सकता ।
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