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________________ विकल्प से विमुक्ति जीवन एक सागर के तुल्य है, जिसमें रत्न भी होते हैं और कंकड़ भी होते हैं । सागर के अन्दर में रत्न भरे होते हैं, इसी आधार पर उसे रत्नाकर कहा जाता है । सागर का जल खारा होता है, इसलिए उसे लवणाकर भी कहा जाता है । रत्नाकर कहने से उसके गुणों की अभिव्यक्ति होती है और लवणाकर कहने से दोषों की अभिव्यक्ति की जाती है । यही बात जीवन के सम्बन्ध में कही जाती है । सर्व साधारण. मनुष्य के जीवन में गुण भी होते हैं और दोष भी होते हैं । मानव-जीवन के दोषों की परिगणना नहीं की जा सकती । यह सत्य है, किन्तु मनुष्य की आत्मा में गुण भी असीम होते हैं । साधारण जन-जीवन क्या है ? वह न एकान्त गुणमय है और न एकान्त दोषमय है । गुण और दोष दोनों का समन्वय ही प्रस्तुत जीवन होता है । जीवन को समझने के लिए और जीवन के रहस्य का परिज्ञान करने के लिए यह आवश्यक है, कि हम उसके शुभ और अशुभ दोनों पक्षों का निर्णय करें । यदि दोषों का परिज्ञान नहीं होगा, तो उनका परित्याग भी कैसे हो सकेगा । जैन दर्शन के अनुसार जिस वस्तु का परित्याग किया जाता है, उसका परिज्ञान भी आवश्यक माना गया है । यह ठीक है, कि दोषों को समझ कर उन्हें हमें ग्रहण नहीं करना है, ग्रहण तो गुणों का ही होना चाहिए । गुणों का ग्रहण और दोषों का परिहार, यही साधक जीवन का उद्देश्य एवं लक्ष्य होना चाहिए, तभी जीवन स्वस्थ और सुन्दर बन सकगा अन्यथा जीवन की अनन्त निधि में से हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे । जीवन की समृद्धि की आधारशिला नैतिकता है । कुछ लोग सोचते हैं कि नैतिकता से हमारा जीवन चल नहीं सकता, किन्तु मेरे विचार में सत्य यह है, कि अनैतिकता हमारे जीवन का ध्येय बन नहीं सकता । मनुष्य अपने आपको समृद्ध और सुखी बनाने के लिए कितनी भी अनैतिकता का आचरण करे, किन्तु यह उसके मन की भ्रान्ति है, कि अनैतिकता से वह समृद्ध हो रहा है । भारतीय संस्कृति के अनुसार अनैतिकता समृद्धि की आधार शिला कभी नहीं बन सकती । मानवीय-जीवन में कभी कार्य-कारण-भाव अन्यथा नहीं हो सकता । जैसा कारण होगा, वैसा ही कार्य होगा । यह एक सिद्धान्त है. कि नैतिकता से सख मिलता है और ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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