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अध्यात्म-साधना
लेना चाहिए । एक सेनापति थे, उनका यह स्वभाव था, कि मार्ग में जब कोई सैनिक या असैनिक उन्हें मिल जाता, तो वे सर्वप्रथम हाथ जोड़ कर नमस्कार करते । उनका एक दूसरा मित्र था, वह भी सेना में काम करता था, किन्तु पद की अपेक्षा वह उस सेनापति से छोटा था । एक बार वे दर्शन करने आये तो चर्चा चलने पर छोटे सेनापति ने अपने बड़े सेनापति के सम्बन्ध में मुझसे कहा कि “महाराज ! हमारे सेनापति बहुत अच्छे व्यक्ति हैं, वे बहुत ही विनम्र और मिलनसार हैं । हमारे सेनापति की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है, कि वे सबसे बड़े हैं, पर सबसे पहले नमस्कार करते हैं ।" इस पर मैंने अर्न्तदृष्टि जानने के विचार से पूछा कि “आप ऐसा क्यों करते हैं ? अपने से बड़े व्यक्ति को तो नमस्कार करना ठीक है, किन्तु अपने से छोटे व्यक्ति को और वह भी पहले नमस्कार करना, इसमें आपका क्या हेतु है ?" उसने बड़ी विनम्रता के साथ कहा-"आप कहते हैं, सो ठीक है, मेरे साथियों में से भी बहुत से साथी मुझसे यही कहते हैं कि आपको पहले नमस्कार नहीं करना चाहिए । दूसरे लोग पहले आपको नमस्कार कर लें, तभी आपको बदले में नमस्कार करना चाहिए ।" उसने अपनी बात को जरा और आगे बढ़ाते हुए कहा-"महाराज श्री ! आप ही बतलाइए कि नमस्कार करना अच्छा काम है अथवा बुरा काम है ? यदि यह काम अच्छा है, तो एक सैनिक का कर्तव्य है, कि अच्छे कामों में वह अपने आपको सबके आगे रखे । यदि यह सत्कर्म है, तो उसमें मैं अपना पहला नम्बर क्यों न लूँ, पीछे का नम्बर क्यों लूँ ? जो शुभ अवसर हमें मिलता है, उसका हमी पहले लाभ क्यों न उठायें ?"
सेनापति की बात सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । मैंने अपने मन में सोचा, सेनापति होते हुए भी इसके विचार कितने उज्ज्वल और स्वच्छ हैं । बात भी ठीक है, जब किसी कर्म को हमने सत्कर्म मान लिया, तब . उसके करने में हमें स्वयं ही पहल करनी चाहिए ।
__ मैं आपसे यह कह रहा था कि मनुष्य के मन का व्यामोह उसे जीवन के मोर्चे पर खड़ा नहीं रहने देता । बहुत से मनुष्य इसलिए सत्कर्म नहीं करते, कि समाज के लोग उसकी आलोचना करेंगे । समाज के लोगों की आलोचना के भय से वह अपने सत्कर्म को छोड़ बैठता है । प्रतिष्ठा की आसक्ति भी जीवन-विकास में एक बहुत बड़ी बाधा है । आदर-सत्कार पाने की मनुष्य के मन में तीव्र अभिलाषा रहती है । प्रत्येक व्यक्ति यह
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