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________________ समाज और संस्कृति उठे और देखा कि हमसे आगे सोने वाले कहाँ चले गये ? तलाश करने पर पता लगा, कि वे सबसे पीछे जाकर सो गये हैं। दूसरी पंक्ति के लोगों ने भी यही सोचा, कि यदि क्षत्रियों ने हम पर आक्रमण कर दिया तो हम मारे जायेंगे, अतः वे भी अपनी जीवन-रक्षा के लिए पीछे की सबसे अन्तिम पंक्ति के बाद जाकर सो गये । इस प्रकार अगली पंक्ति के लोग धीरे-धीरे पीछे खिसकते रहे । ठीक समय पर क्षत्रिय लोगों के गाँव पर आक्रमण करने की अपेक्षा, वे लोग अपने जीवन की रक्षा करने के लिए बराबर पीछे की ओर हटते रहे । परिणामतः पीछे सरकते-सरकते सब लोग अपने उसी गाँव में पहुँच गये, जहाँ से वे आक्रमण करने के लिए चले थे । इस कथानक में कुछ व्यंग्य हो सकता है, मजाक हो सकता है, लेकिन मैं समझता हूँ कि जीवन के क्षेत्र में कायर व्यक्ति हर मोर्चे पर ऐसा ही सोचते हैं और ऐसा ही करते हैं । जीवन-मोह में से ही इस प्रकार पीछे हटने की भावना उत्पन्न होती है । युद्ध की बात ही नहीं, दान, सेवा और परोपकार आदि के रूप में जीवन के हर मोर्चे पर मनुष्य पीछे ही हटना चाहता है, वह आगे नहीं बढ़ना चाहता । यदि कोई व्यक्ति दान लेने के लिए अथवा कुछ सहायता प्राप्त करने के लिए किसी के पास जाता है, तो वह यही कहता है, कि इस चिट्ठे पर पहले अमुक व्यक्ति से लिखवा लीजिए, उसके बाद मैं लिखूगा अथवा पिता पुत्र का बहाना करता है और पुत्र पिता का और यदि दोनों ही पकड़ में आ जाते हैं, तो बचने के लिए मुनीमजी का पल्ला पकड़ते हैं और कहते हैं कि मुनीमजी से पूछेगे, इस प्रकार धन का मोह उसे दान नहीं करने देता । दान करने का अवसर मिलने पर भी, व्यक्ति धन-मोह के कारण दान नहीं कर पाता, किसी की सहायता नहीं कर पाता । मैं आपसे पूछता हूँ, कि दान करना अथवा किसी की सहायता करना अच्छा काम है अथवा बुरा काम है ? यदि अच्छा काम है, तो आप दूसरे की ओर न देखकर उस पुण्यमय अवसर का आप स्वयं ही लाभ क्यों नहीं उठाते ? आश्चर्य इस बात का है, कि जिस कार्य को आप अच्छा समझते हैं, फिर उसके करने में आनाकानी क्यों करते हैं, तथा इधर-उधर क्यों देखते हैं ? इसका अर्थ यही है, कि या तो आपने उस कार्य को अच्छा नहीं समझा है अथवा किसी प्रकार का भय आपको शुभ कार्य करने से रोकता है । सत्कर्म में तो मनुष्य को सबसे पहले भाग - ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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