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अध्यात्म-साधना
नहीं है, कि इन्द्र का ऐश्वर्य और चक्रवर्ती का भोग भी संसार में स्थिर नहीं रहता है । इस स्थिति में किस पदार्थ को अपना समझा जाए और किस पदार्थ की प्राप्ति पर अहंकार किया जाए । मनुष्य का अहंकार सर्वथा व्यर्थ है, क्योंकि यह लक्ष्मी, यह वैभव और यह विलास कभी स्थिर नहीं रहा है और कभी स्थिर नहीं रहेगा । जो आया है, वह अवश्य ही जायेगा ।
मैं आपसे संसार के पदार्थों की बात कह रहा था । संसार के पदार्थ क्या हैं, उनका क्या स्वरूप है ? यह एक गम्भीर विषय है । भारत के तत्वदर्शी विचारकों ने कहा है, कि संसार का एक भी पदार्थ हमारा अपना नहीं हो सका है। जो अपना नहीं है. उसे अपना मानना यही सबसे भयंकर भूल है । मनुष्य अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए अशन, वसन और भवन का संग्रह करता है । उसने जो कुछ इधर-उधर से बटोरा है, उस पर वह अपनेपन की मुद्रा लगाना चाहता है । यह जीवन क्या है, जल-बुबुद के समान क्षण भंगुर इन्सान अपनी जिन्दगी के पचास-साठ वर्षों में न्याय से अथवा अन्याय से जो संग्रह कर पाता है, अन्त में वह उसे यहीं छोड़कर विदा हो जाता है । जिन पदार्थों को वह जीवन भर अपना मानता रहा, उन पर प्रेम करता रहा, आखिर वे भी उसका साथ न दे सके । उन सबको यहीं छोड़कर उसे अकेले ही यहाँ से विदा होना पड़ा । यह है, संसार की वास्तविक स्थिति । संसार के किस पदार्थ की आसक्ति की जाए और किस पदार्थ से मोह किया जाए और संसार के किस पदार्थ को अपना माना जाए ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । जब यह शरीर भी हमारा अपना नहीं है, तब इस शरीर को सजाने वाले अलंकार और वस्त्र हमारे अपने कैसे हो सकेंगे ? मोह मुग्ध आत्मा संसार के इस चरम सत्य को समझ नहीं सकता ।
एक बार मुझे एक डाक्टर मिले । उन्होंने कहा, कि यह औषधि ले लो । उस समय मैं बंगाल की विहार-यात्रा कर रहा था और कुछ अस्वस्थ था । ___ मैंने डाक्टर से पूछा- “औषधि तो मैं ले लँगा, किन्तु पहले यह बतलाइए कि जो औषधि आप मुझे दे रहे हैं, उसमें कोई ऐसी वस्तु तो नहीं है, जो हमारे नियम के विरुद्ध हो ।"
डाक्टर बोला-"क्या अभिप्राय है आपका ?" मैंने अपनी बात को
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