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________________ समाज और संस्कृति प्राचीन काल में युद्ध का एक 'सिद्धान्त था, कि 'हतं सैन्यमनायकम्' इसका अर्थ है-जिस सेना का सेनापति मर जाता है, वह सेना नष्ट हो जाती है । बात यह सही है, कि जब मार्ग-दर्शक नहीं रहा और जब सेना का संचालन करने वाला सेनापति ही नहीं रहा, तब सेना युद्ध के क्षेत्र में कैसे खड़ी रह सकती है । शक्ति सेना में नहीं रहती, वह रहती है सेनापति में । जब सेनापति मर गया, तब नेतृत्व के अभाव में वह सेना शक्ति रहते हुए भी लड़ने में असमर्थ हो जाती है । यही सिद्धान्त हमारे मानसिक जगत पर लागू होता है । एक-एक मनुष्य के मन में असंख्यात विकल्पों की सेना रहती है, किन्तु उन सबका सेनापति एक ही है । वह सेनापति है—मोह । यदि मोह को नष्ट कर दिया जाए, तो अन्य विकल्पों की विशाल सेना भी मन के युद्ध क्षेत्र में खड़ी नहीं रह सकती । जिस सेना का सेनानी ही समाप्त हो गया, तो फिर वह सेना युद्ध स्थल में खड़ी नहीं रह सकती, वह पराजित होती है और भाग खड़ी होती है । इसी प्रकार जितने कर्म हैं, जितने दोष हैं, उन सब दोषों का राजा अथवा सेनापति मोह है । शेष सब विकार इस मोह के नेतृत्व में ही आगे बढ़ते हैं और पल्लवित होते हैं । राग और द्वेष भी इसी मोह से सम्बन्धित हैं । जब किसी वस्तु के प्रति हमारे मन में लगाव पैदा होता है, तो हम उसे राग कहते हैं और जब किसी वस्तु के प्रति विलगाव पैदा होता है, तो हम उसे द्वेष कहते हैं । शास्त्रकारों का कथन है, कि सबसे बड़ी लड़ाई और सबसे पहली लड़ाई, जो साधक को लड़नी है, वह अपने मोह से लड़नी है, क्योंकि समग्र दोषों का मूल केन्द्र यह मोह ही है । उस पर विजय प्राप्त कर ली, तो सारी साधना नियमित ढंग से चलती रहेगी। फिर दुनिया की कोई ताकत नहीं, कि आपकी साधना को गलत राह पर मोड़ सके । हम जहाँ कहीं भी गये हैं, वहीं पर हमें शरीर मिला है, इन्द्रियाँ मिली हैं और संसार के पदार्थ मिले हैं, उन पदार्थों पर हमारी आसक्ति रही है, इस आसक्ति को तोड़ना ही सबसे बड़ी साधना है । इस आसक्ति को तोड़ने के दो उपाय हैं. अभ्यास और वैराग्य । निरन्तर प्रयत्न करना, यही अभ्यास है और विषयों में विरक्ति रखना, यही वैराग्य है । बिना वैराग्य के संसार के पदार्थों की आसक्ति से छुटकारा नहीं मिल सकता । साधारण मनुष्य की बात क्या, इन्द्र और चक्रवर्ती जैसी शक्ति भी आसक्ति के चंगुल में फँसी रहती हैं । मनुष्य तुच्छ पदार्थों के लिए झगड़ता है, किन्तु उसे यह पता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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