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________________ अध्यात्म-साधना % 3D अथवा विकारों को उत्पन्न होने दे । विचार से विकास होता है और विकार से विनाश होता है । यदि इस सिद्धान्त को ध्यान में रखा जाए, तो मनुष्य बहुत से पापों से और विकारों से बच सकता है । शास्त्रकारों ने बताया है "मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः । बन्धाय विषायासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।।" मनुष्य का मन ही बन्धन का कारण है और मनुष्य का मन ही मुक्ति का कारण है । जब मनुष्य का मन विकल्प और विकारों से भर जाता है, तब वह उसे बन्धन में डाल देता है और जब मनुष्य के मन में शुद्धोपयोग की धारा प्रवाहित होती है, तब वह मुक्ति की ओर अग्रसर होता है । बन्धन और मुक्ति दोनों हमारे मन में हैं । हम अपने विकारों के कारण ही बन्धन में बँधते हैं और हम अपने स्वच्छ विचारों के कारण ही बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं । जीवन की प्रत्येक क्रिया में, फिर भले ही वह बड़ी हो अथवा छोटी हो, विवेक और विचार की बड़ी आवश्यकता रहती है । विवेकशील व्यक्ति पतन के अन्धकार में से भी उत्थान के प्रकाश को खोज लेता है । मैं आपसे विकार की बात कर रहा था । एक सज्जन ने मुझसे पूछा, कि “विकार कितने हैं ?" मैंने कहा-“विकारों का लेखा जोखा लगाना साधारण बात नहीं है । एक-एक मनुष्य के मन में हजारों, लाखों, करोड़ों और असंख्यात विकार होते हैं ? उन सबसे लड़ना न सम्भव है और न शक्य है । प्रतिक्षण मनुष्य के मन में विकारों का एक तूफान उठ रहा है, विकारों का एक झंझावात चल रहा है और विकारों का ज्वार-भाटा उभर रहा है । मन के असंख्यात विकारों से पृथक-पृथक रूप में न लड़ा जा सकता है और न उन पर विजय प्राप्त की जा सकती है । उन्हें जीतने का एक ही तरीका है, उन पर विजय प्राप्त करने का एक ही उपाय है । यदि उस उपाय से उन पर विजय प्राप्त की जाए, तो मनुष्य को शीघ्र ही सफलता मिल सकती है । विकारों से लड़ने की एक कला है, उस कला के अपरिज्ञान से ही जीवन में हजारों समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं । विकारों से लड़ने की एक कला है, यह मैंने आपसे कहा है । आप सोचते होंगे कि वह कला कौन-सी है, जिसके परिज्ञान से हम अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर सकें । उस कला का प्रतिपादन करना ही शास्त्र का एक मात्र उद्देश्य है । ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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