SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाज और संस्कृति - बोला-"भगवन ! आपका कथन सत्य-भूत एवं यथार्थ है । अध्यात्म साधना, अध्यात्मक साधना है, उसे न बेचा जा सकता है और न खरीदा जा सकता है । मेरी बुद्धि का भ्रम आज आपके उपदेश से दूर हो गया यह कथानक हमें आध्यात्मिक वैभव के समक्ष भौतिक वैभव की नगण्यता बताता है और यह भी बताता है, कि मनुष्य स्वयं अपने पुरुषार्थ से जो कुछ साधना पर पाता है, वही उसकी अपनी साधना है । दूसरे की साधना किसी दूसरे के काम नहीं आ सकती । यह कथानक साधना के एक और अंग पर भी प्रकाश डालता है । वह अंग है साधना में निष्काम-भाव का होना । राजा श्रेणिक जब तक सन्तों को शुद्ध भाव से वन्दन करता रहा, कर्म-क्षय होता रहा और ज्यों ही सकाम भावना आई, भय एवं प्रलोभन का भाव जागृत हुआ, फिर उसी वन्दन क्रिया में वह आनन्द, वह माधुर्य, वह शक्ति और वह स्वारस्य नहीं रहा । अतएव साधना के क्षेत्र में आपको जो भी कुछ करना हो, निष्काम भाव से कीजिए । मन में किसी प्रकार का स्वार्थ रख कर मत चलिए, जिस साधना के पीछे कामना हो, अभिलाषा हो, वस्तुतः उसे अध्यात्म साधना कहा ही नहीं जा सकता । अध्यात्म-साधना में समत्व-योग की आवश्यकता है । मन के और बुद्धि के संतुलन की और सावधानी की अपेक्षा है । साधक अपने मन के खेत में कामना का बीज डालता है, तो उसे अध्यात्म-फल कैसे प्राप्त हो सकता है ? किसान अपने खेत को जोतकर और साफ करके उत्तम बीज डालता है, और जो घास-फूस व्यर्थ पैदा हो जाता है, उसे दूर करके पौधों की रक्षा करता है, तभी अच्छी फसल पैदा होती है, साधक के मन के खेत की भी यही स्थिति है । मन के खेत में असावधानी अथवा प्रमाद से काम-क्रोध आदि विकार का घास-पात उत्पन्न हो जाता है, यदि साधक उसे दूर न हटाए, तो उसके मन की खेती की फसल अच्छी नहीं हो सकती । मनुष्य का मन एक ऐसी भूमि है, कि उसमें विचार भी उत्पन्न हो सकते हैं और उसमें विकार भी उत्पन्न हो सकते हैं । यदि विवेक न रखा जाए, तो मानव-मन में विकार ही उत्पन्न होंगे, उसमें उत्तम विचार उत्पन्न कैसे हो सकता है ? मन की भूमि एक ऐसा खेत है, इसमें संसार-अभिवृद्धि का बीज भी बोया जा सकता है और कर्म क्षय का बीज भी बोया जा सकता है । यह साधक पर निर्भर है, कि वह अपने मन के खेत में विचारों को उत्पन्न होने दे ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy