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स्वभाव और विभाव
का मूलाधार है, अहिंसा और समता । जब जीवन में समत्व-योग आ जाता है, तब उसकी अद्वैत-भावना प्राण-प्राण में प्रसार पा जाती है । उस समय प्रबुद्ध साधक अद्वैत-भावना में स्थिर होकर जगत के अन्य प्राणियों से यही कहता है, कि मैं हूँ सो तुम हो और तुम हो सो मैं हूँ । मेरी आत्मा में जो गुण हैं, वे ही गुण तुम्हारी आत्मा में भी हैं । स्वरूप की दृष्टि से मेरी आत्मा में और तुम्हारी आत्मा में अणुमात्र भी भेद नहीं है । यदि कुछ अन्तर हो सकती है, तो वह यही, कि मैं प्रबुद्ध हो चुका हूँ और तुम अभी प्रसुप्त पड़े हो । प्रत्येक आत्मा को अपने आपको जगाना होगा । अपनी शक्तियों का प्रकाश स्वयं करना होगा । मैं जहाँ पहुँचा हूँ, हर आत्मा वहाँ पहुँच सकती है । मूल द्रव्य में तो वह वहाँ पहुँचा हुआ ही है, पर जब तक इस मोह-निद्रा एवं अज्ञान-निद्रा को नहीं छोड़ेंगे, तब तक पर्याय-शुद्धता की दिशा में कुछ होने वाला नहीं है । यह साम्राज्य, यह ऐश्वर्य और यह वैभव इन्सान के मन को घेर लेते हैं । इनके लिए लड़ाई और झगड़े होते हैं । और तो क्या, पिता और पुत्र भी इसके लिए लड़ पड़ते हैं. भाई-भाई भी इसके लिए मर मिटते हैं । आप देखते हैं, कि प्रतिदिन अखबारों में दुराचार, पापाचार और मिथ्याचार की कहानियाँ प्रकाशित होती रहती हैं । उनको पढ़कर मन में विचार आता है, कि इस स्वार्थ लिप्त संसार का कल्याण कैसे होगा ? इन अधोमुख आत्माओं का उद्धार कैसे होगा ? परन्तु हमारा दर्शन हमें यह प्रेरणा देता है, कि संसार के दुराचार और पापाचार से घबड़ाने की और हार मान लेने की आवश्यकता नहीं है, अन्धकार कितना भी प्रगाढ़ क्यों न हो, और कितना भी दीर्घकालीन क्यों न हो, वह प्रकाश की किरण के समक्ष टिक नहीं सकता. इसी प्रकार आत्म-ज्योति के समक्ष यह भयंकर से भयंकर पापाचर और दुराचार टिक नहीं सकते । भारतीय दर्शन के अनुसार विश्व की प्रत्येक आत्मा, भले ही वह कहीं पर भी और किसी भी स्थिति में क्यों न हो, सच्चिदानन्दमय है । कर्म-संयोग से और माया के संयोग से ही आत्मा अपने मूल स्वरूप को भूल कर संसार की अँधेरी गलियों में इधर-उधर भटक रहा है । कभी नरक में, तो कभी स्वर्ग में, कभी पशु-पक्षी की योनि तो कभी मनुष्य गति में । अपने मूल रूप में आत्मा सदा स्थिर है, सदा ज्ञानमय है और सदा आनन्दमय है । यह है, भारतीय-संस्कृति का मूल स्वर और जिसका आधार है, भारत का अध्यात्मवादी दर्शन ।।
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