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________________ समाज और संस्कृति सब इधर-उधर भागते हैं, या नहीं ? यह आत्म-बोध और आत्म जागरण ही मन के विकल्प और विकारों से विमुक्ति का एक मात्र मार्ग है । मैं आपसे यह कह रहा था, कि त्याग और वैराग्य बाहर से लादने पर नहीं आता है, वह तो अन्तर के जागरण से ही आता है । जीवन में त्याग और वैराग्यं का उदय कब होगा, इसके लिए किसी तिथि का निर्धारण नहीं है । जब जागरण आ जाए, तभी उसका उदय हो सकता है । हम देखते हैं, कि कुछ आत्माओं को उनके गुलाबी बचपन में ही वैराग्य का उदय हो गया, कुछ आत्माओं में उनके जीवन के वसन्त - काल में वैराग्य का उदय हुआ और कुछ आत्माओं में जीवन की संध्या में पहुँचकर ही वैराग्य का उदय हुआ । संसार में इस प्रकार की आत्माएँ भी हैं, जिनके जीवन - क्षितिज पर त्याग और बैराग्य के सूर्य की आत्माएँ भी हैं, जिनके जीवन - क्षितिज पर त्याग और वैराग्य के सूर्य का उदय कभी होता ही नहीं है, न बाल्यकाल में न यौवन में और न जीवन की गोधूली - वेला में ही । त्याग और वैराग्य का उदय किसी भी आत्मा की, किसी भी अवस्था विशेष से सम्बद्ध नहीं है, यह सब कुछ तो मनुष्य के मन के जागरण पर ही निर्भर है। संसार की अँधेरी गलियों में भूली - भटकी आत्मा, जब जाग उठे, तभी उसके जीवन का सवेरा समझिए । मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि त्याग और वैराग्य की विमल भावना किसी के सिखाने और पढ़ाने मात्र से नहीं आती है । वह आती है, मूलतः अन्तर्ज्योति के प्रकट होने पर । हम देखते हैं, कि बहुत से साधक सन्मार्ग पर आते ही नहीं, और कुछ सन्मार्ग पर आकर भी भटक जाते हैं और बहुत से भटके हुए पुनः शीघ्र ही स्थिर हो जाते हैं । और कुछ ऐसे भी होते हैं, जो एक बार भटकने के बाद जल्दी ही ठिकाने पर नहीं आते हैं । जीवन का यह विकास और ह्रास, जीवन का यह उत्थान और पतन, कहीं बाहर से नहीं आता, अन्दर से ही पैदा होता है । विवेक का प्रकाश जिस किसी भी आत्मा के घट में प्रकट हो जाता है, फिर उसे न उपदेश की आवश्यकता रहती है और न मार्ग निर्देशन की ही । वास्तव में तो साधक को अपनी जिन्दगी की राह अपने आप ही बनानी पड़ती है । जिस व्यक्ति ने अपने गंतव्य पथ का निर्माण स्वयं अपने पुरुषार्थ से ही किया है, उसे उसके साधना पथ में किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता है, इसी में उसकी साधना की परिपूर्णता रहती है । जैन - दर्शन में अद्वैत - भावना का बड़ा ही महत्त्व है । अद्वैत - भावना ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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