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व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति
होता है और फिर उसी में सम्पूर्ण संसार का विलय हो जाता है । संसार बने अथवा बिगड़े किन्तु ब्रह्म की सत्ता में किसी प्रकार की गड़बड़ी पैदा नहीं होती । इस पर से यह परिज्ञात होता है, कि वैदिक परम्परा मूल में व्यक्तिवादी है, समाजवादी नहीं । पुराण - काल में हम देखते हैं, कि कभी ब्रह्मा का महत्व बढ़ता है, कभी विष्णु की महिमा बढ़ती है और कभी रुद्र की गरिमा आगे आ जाती है । आगे चलकर इन्द्र देवता की इतनी पूजा होने लगी, कि उसके व्यक्तित्व में ब्रह्मा, विष्णु और महेश- सभी ओझल हो गए । जो जिस समय शक्ति में आया, लोग उसी के पीछे चलने लगे और लोगों ने अपने संरक्षण के लिए उसी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया । क्या वेद में, क्या उपनिषद में और क्या पुराण में सर्वत्र हमें व्यक्तिवाद ही नजर आता है । गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने यहाँ तक कह दिया कि “सर्व-धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । " सब कुछ छोड़कर हे अर्जुन ! तू मेरी शरण में आ जा । अर्थात् मेरा विचार ही तेरा विचार हो, मेरी वाणी ही तेरी वाणी हो और मेरा कर्म ही तेरा कर्म हो । इससे बढ़कर और इससे प्रबलतर व्यक्तिवाद का अन्य उदाहरण नहीं हो सकता ।
मैं आपसे व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध में कह रहा था । समाजवादी और व्यक्तिवादी दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं के मूल उद्देश्य में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है । व्यवस्था चाहे व्यक्तिवादी हो अथवा समावादी हो, उसका मूल उद्देश्य एक ही है—व्यक्ति और समाज का विकास । व्यक्तिवादी व्यवस्था में समाज का तिरस्कार नहीं हो सकता । और समाजवादी व्यवस्था में व्यक्ति की सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता । समाज का विकास व्यक्ति पर आश्रित है, तो व्यक्ति का विकास भी समाज पर आधारित रहता है । व्यक्ति समाज को समर्पण करता है और समाज व्यक्ति को प्रदान करता है । व्यक्ति और समाज का यह आदान और प्रदान ही, उनके एक-दूसरे के विकास में सहयोगी और सहकारी है । अपने आप में दोनों बड़े हैं । दोनों एक दूसरे पर आश्रित रहकर ही जीवित रह सकते हैं । यदि व्यक्ति समाज की उपेक्षा करके चले, तो व्यवस्था नहीं रह सकती और समाज व्यक्ति को ठुकराए तो वह समाज भी तनकर खड़ा रह नहीं सकता ।
आज के युग में व्यक्तिवाद और समाजवाद की बहुत अधिक चर्चा है । कुछ लोग व्यक्तिवाद को पसन्द करते हैं और कुछ लोग समाजवाद
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