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समाज और संस्कृति
अधिक गौरव प्रदान किया है । यहाँ तक कि जैन संस्कृति में सर्वोच्च सत्ता माने जाने वाले तीर्थंकर भी तीर्थ एवं संघ को नमस्कार करते हैं । महान् से महान् आचार्य भी यहाँ पर संघ के आदेश को मानने के लिए बाध्य होता है । यद्यपि जैन-धर्म के सिद्धान्त के अनुसार संघ की रचना एक व्यक्ति ही करता है, और वह व्यक्ति है, तीर्थंकर । फिर भी संघ को, तीर्थ को और समाज को जो इतना अधिक गौरव प्रदान किया गया है, उसके पीछे एक ही उद्देश्य है, कि संघ और समाज की रक्षा और व्यवस्था में ही व्यक्ति का विकास निहित है । पहले संघ और फिर व्यक्ति । जैन-संस्कृति की संघ-रचना में और उसके संविधान में गृहस्थ और साधु को समान अधिकार की उपलब्धि है । जैन-संस्कृति में संघ के चार अंग माने गए हैं-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका । इन चारों का समवेत रूप ही संघ है । आध्यात्मिक दृष्टि से जो अधिकार एक श्रमण को प्राप्त हैं, वही अधिकार श्रमणी को भी प्राप्त है । जो अधिकार एक श्रावक को है, उतना ही अधिकार एक श्राविका को भी है । यदि जैन इतिहास की दीर्घ परम्परा पर और उसकी विशिष्ट संघ-रचना पर गम्भीरता से विचार किया जाए, तो यह परिज्ञात होगा, कि जैन-संस्कृति मूल में व्यक्तिवादी न होकर समाजवादी है । किन्तु उसका समाजवाद आर्थिक और राजनैतिक न होकर एक आध्यात्मिक समाजवाद है । वह एक सर्वोदयी समाजवाद है, जिसमें सभी के उदय को समान भाव से स्वीकार किया गया है । यहाँ पर एक के पतन पर दूसरे का उत्थान नहीं है और यहाँ पर एक के विनाश पर दूसरे का विकास नहीं है, बल्कि एक के उत्थान में सबका उत्थान है और एक के पतन में सबका पतन है, तथा एक के विनाश में सबका विनाश है और एक के विकास में सबका विकास है । इस प्रकार जैन-संस्कृति का समाजवाद एक आध्यात्मिक समाजवाद है ।
वैदिक परम्परा में और वैदिक संस्कृति के इतिहास में यह बताया गया है, कि विश्व में व्यक्ति ही सब कुछ है, समाज तो एक व्यक्ति के पीछे खड़ा है । वह व्यक्ति भले ही ईश्वर हो, परब्रह्म हो, अथवा विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र हो, कोई भी हो । एक व्यक्ति के संकेत पर ही वहाँ सारा समाज और सारा विश्व खज़ होता है । व्यक्तिवाद को इतनी स्वतन्त्रता देने का एक मात्र कारण यह है, रि वैदिक संस्कृति के मल में सम्पूर्ण विश्व में एक ही सत्ता है-पर ब्रह्म । उसो में से संसार का जन्म
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