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________________ संस्कृति की सीमा अभिव्यंजक नहीं है । कुछ विद्वान् संस्कृति के पर्यायवाची रूप में संस्कार, परिष्कार और सुधार शब्द का प्रयोग करते हैं, परन्तु यह उचित नहीं है । वस्तुतः संस्कृति की उच्चता, संस्कृति की गम्भीरता और संस्कृति की पवित्रता को धारण करने का सामर्थ्य इन तीनों शब्दों में से किसी में भी नहीं है । अधिक से अधिक खींचातानी करके संस्कार, परिष्कार एवं सुधार शब्द से आचार का ग्रहण तो कदाचित् किया भी जा सके, परन्तु विचार और कला की अभिव्यक्ति इन शब्दों से कथमपि नहीं हो सकती । संस्कृति शब्द से धर्म, दर्शन और कला–तीनों की अभिव्यक्ति की जा सकती है । __ संस्कृति एक बहती धारा है । जिस प्रकार सरिता का प्राणतत्व है, उसका प्रवाह, ठीक उसी प्रकार संस्कृति का प्राणतत्व भी उसका सतत प्रवाह है । संस्कृति का अर्थ है—निरन्तर विकास की ओर बढ़ना । संस्कृति विचार, आदर्श और भावना तथा संस्कार-प्रवाह का वह संगठित एवं सुस्थिर संस्थान है, जो मानव को अपने पूर्वजों से सहज ही अधिगत हो जाता है । व्यापक अर्थ में संस्कृति को भौतिक और आध्यात्मिक-इन दो भागों में बाँटा जा सकता है । भौतिक संस्कृति को सभ्यता भी कहते हैं । इसमें भवन, वसन, वाहन एवं यन्त्र आदि वह समस्त भौतिक सामग्री आ जाती है, जिसका समाज ने अपने श्रम से निर्माण किया है । कला का सम्बन्ध इसी भौतिक संस्कृति से है । आध्यात्मिक संस्कृति में आचार, विचार और विज्ञान का समावेश किया जाता है । संस्कृति का अर्थ संस्कार भी किया जाता है । संस्कार के दो प्रकार हैं—एक वैयक्तिक, जिसमें मनुष्य अपने गुण से एवं अपनी शिष्टता से चमकता है । दूसरा सामूहिक, जो समाज में समाज-विरोधी दूषित आचार का प्रतिकार करता है । समान आचार, समान विचार, समान विश्वास, समान भाषा और समान पथ—संस्कृति को एकता प्रदान करते हैं । संस्कृति मानव के भूत, वर्तमान और भावी-जीवन का सर्वाङ्गीण चित्रण है । जीवन जीने की कला अथवा पद्धति को संस्कृति कहते हैं । संस्कृति आकाश में नहीं, इसी धरती पर रहती है । वह कल्पना मात्र नहीं है, जीवन का ठोस सत्य है एवं जीवन का प्राणभूत तत्व है । मानवीय जीवन के नानाविध रूपों का समुदाय ही संस्कृति है । संस्कृति में विकास और परिवर्तन सदा होता आया है । जितना भी जीवन का 'सत्यं, शिवं, सुन्दरम्' है, उसका सर्जन मनुष्य के मन, प्राण और देह के प्रबल एवं दीर्घकालिक प्रयत्नों के फलस्वरूप हुआ है । मनुष्य-जीवन कभी जाम नहीं २३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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