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समाज और संस्कृति
mind, is one of the last lesson of culture and comes from a perfect trust in the all controlling force of univers.”— स्वभाव की गम्भीरता, मन की समता, संस्कृति के अन्तिम पृष्ठों में से एक है और यह समस्त विश्व को वश में करने वाली शक्ति में पूर्ण विश्वास से उत्पन्न होती है ।" इस कथन का अभिप्राय यह है, कि आत्मा की अजरता और अमरता में अटल विश्वास होना ही, वास्तविक संस्कृति है । संस्कृति के सम्बन्ध में भारत के महान चिन्तक सानेगुरु का कथन है, कि “जो संस्कृति महान होती है, वह दूसरों की संस्कृति को भय नहीं देती, बल्कि उसे साथ लेकर पवित्रता देती है । गंगा की गरिमा इसी में है, कि वह दूसरे प्रवाहों को अपने में मिला लेती है, और इसी कारण वह पवित्र, स्वच्छ एवं आदरणीय कही जा सकती है । लोक में वही संस्कृति आदर के योग्य है, जो विभिन्न धाराओं को साथ में लेकर अग्रसर होती रहती है ।" - मैं आपसे संस्कृति के विषय में कुछ कह रहा था । आज संसार में सर्वत्र संस्कृति की चर्चा है । सभा में, सम्मेलन में और उत्सव में सर्वत्र ही आज संस्कृति का बोलवाला है । सामान्य शिक्षित व्यक्ति से लेकर, विशिष्ट विद्वान् तक आज संस्कृति पर बोलते और लिखते हैं, परन्तु संस्कृति की परिभाषा एवं व्याख्या आज तक भी स्थिर नहीं हो सकी है । संस्कृति क्या है ? विद्वानों ने विभिन्न पद्धतियों से इस पर विचार किया है । आज भी विचार चल ही रहा है । संस्कृति की सारेता के प्रवाह को शब्दों की सीमा-रेखा में बाँधने का प्रयत्न तो बहुत किया गया है, पर उसमें सफलता नहीं मिल सकी है। भारत के प्राचीन साहित्य में धर्म, दर्शन और कला की चर्चा तो बहुत है, पर संस्कृति की नहीं । इसके विपरीत आज के जन-जीवन में और आज के साहित्य में सर्वत्र संस्कृति ही मुखर हो रही है । उसने अपने आप में धर्म, दर्शन और कला, तीनों को समेट लिया है । मैं पूछता हूँ, आपसे कि संस्कृति में क्या नहीं है ? उसमें आचार की पवित्रता है, विचार की गम्भीरता है और कला की प्रियता एवं सुन्दरता है । अपनी इसी अर्थ-व्यापकता के आधार पर संस्कृति ने धर्म, दर्शन और कला–तीनों को आत्मसात कर लिया है । जहाँ संस्कृति है, वहाँ धर्म होगा ही । जहाँ संस्कृति है, वहाँ दर्शन होगा ही । जहाँ संस्कृति है, वहाँ कला होगी ही । भारत के अध्यात्म साहित्य में संस्कृति से बढ़कर अन्य कोई शब्द व्यापक, विशाल और बहु अर्थ का
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