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समाज और संस्कृति
होता, पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है । धर्म, दर्शन, साहित्य और कला - सब मनुष्य जीवन के विकास के सुफल हैं । इस दृष्टि से संस्कृति मानवी जीवन के प्रयत्न की उपलब्धि है । संस्कृति में जब निष्ठा पक्की होती है, तब मन की परिधि भी विस्तृत हो जाती है, उदारता का भण्डार भी भर जाता है । अतः संस्कृति जीवन के लिए परमावश्यक है । संस्कृति, राजनीति और अर्थशास्त्र दोनों को अपने में पचाकर विस्तृत एवं विराट मनस्तत्व को जन्म देती है । इसी को भारतीय संस्कृति में अर्थ और काम का सुन्दर समन्वय कहा गया है । संस्कृति जीवन-वृक्ष का सम्वर्द्धन करने वाला रस है । राजनीति और अर्थशास्त्र केवल पथ की साधना है । संस्कृति उस पथ का साध्य है । व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का सम्वर्द्धन बिना संस्कृति के नहीं हो सकता । संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओं की सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वज्येष्ठ परिणति कही जा सकती है । संस्कृति मानव जीवन का एक अविरोधी तत्व है । वह समस्त विरोधों में सामंजस्य स्थापित करती है । नाना प्रकार की धर्म - साधना, कलात्मक प्रयत्न, योग - मूलक अनुभूति और अपनी तर्क - मूलक कल्पना शक्ति से मनुष्य उस महान् सत्य के व्यापक तथा परिपूर्ण स्वरूप को अधिगत करता जा रहा है, जिसे आज हम संस्कृति कहते हैं । मैं फिर कहूँगा, कि संस्कृति की सर्व सम्मत परिभाषा अभी तक नहीं बन सकी है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि और विचार के अनुसार इसका अर्थ कर लेता है । संस्कृति का अर्थ है— मनुष्य की जय-यात्रा मनुष्य अपनी साधना के बल पर विकृति से संस्कृति और संस्कृति से प्रकृति की ओर निरन्तर गतिशील रहता है । जीवन में विकृति है, इसीलिए संस्कृति की आवश्यकता है । परन्तु संस्कृति को पाकर ही मनुष्य की जय - यात्रा परिसमाप्त नहीं हो जाती । उसे आगे बढ़कर प्रकृति को, अपने स्वभाव को प्राप्त करना होगा । यहाँ संस्कृति का अर्थ है - आत्म-शोधन । संस्कृति के ये विविध रूप और नाना अर्थ आज के साहित्य में उपलब्ध होते हैं । संस्कृति एक विशाल महासागर है ।
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भारतीय संस्कृति की विशेषता उसके आचार- पूत स्वतन्त्र चिन्तन में, सत्य की शोध और उदार व्यवहार में रही है । युद्ध जैसे दारुण अवसर पर भी यहाँ के चिन्तकों ने शान्ति की सीख दी है । वैर के बदले प्रेम, क्रूरता के बदले मृदुता और हिंसा के बदले अहिंसा दी है । भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा है— विरोध में भी विनोद, विविधता में भी
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