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समाज और संस्कृति
परस्पर सम्बन्ध हो सकता है । इसमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं आता । जीव और कर्म का सम्बन्ध
जीव और कर्म का सम्बन्ध कैसे होता है, इस सम्बन्ध में तीन प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं—पहला है नीर-क्षीरवत् । जैसे · जल और दुग्ध परस्पर मिलकर एकमेक हो जाते हैं, वैसे ही कर्म पुद्गल के परमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं । दूसरा विचार है—अग्निलोहपिण्डवत् । जिस प्रकार लोह-पिण्ड को अग्नि में डाल देने से उसके कण-कण में अग्नि परिव्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा को असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त-अनन्त कर्म-वर्गणा के कर्म दलिक सम्बद्ध हो जाते हैं, संश्लिष्ट हो जाते हैं । तीसरा विचार है-सर्प-कञ्चुकीवत् । जिस प्रकार सर्प का उसकी काँचली के साथ सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार आत्मा का भी कर्म के साथ सम्बन्ध हो जाता है । यह तृतीय अभिमत जैन परम्परा के ही एक विद्रोही विचारक सातवें निह्रव गोष्ठामाहिल का है । मूलतः जैन-दर्शन में और कर्म-ग्रन्थों में इस अभिमत को स्वीकार नहीं किया गया है । कर्म और उसका फल
__हम देखते हैं, कि संसार में जितने भी जीव हैं, वे दो ही प्रकार के कर्म करते हैं शुभ और अशुभ, अच्छा और बुरा । कर्मशास्त्र के अनुसार शुभ कर्म का फल अच्छा और अशुभ कर्म का फल बुरा होता है । आश्चर्य है, कि सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं, पर बुरे कर्म का दुःख रूप फल कोई जीव नहीं चाहता । संसार का प्रत्येक प्राणी सुख तो चाहता है, किन्तु दुःख कोई नहीं चाहता । अस्तु, यहाँ एक प्रश्न उठता है, कि कर्म स्वयं जड़ है, वह चेतन नहीं है, तब वह फल कैसे दे सकता है ? क्योंकि फल-प्रदान चेतन की बिना प्रेरणा के नहीं हो सकता । और यदि स्वयं कर्म कर्ता चेतन ही भोग लेता है, तो वह सुख तो भोग सकता है, परन्तु दुःख स्वयं कैसे भोगेगा ? दुःख तो कोई भी नहीं चाहता । अतः कर्मवादी अन्य दार्शनिकों ने कर्म-फल भोग करने वाला ईश्वर माना है । परन्तु जैनदार्शनिक इस प्रकार के ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । फिर जैन-दर्शन में कर्म-फल भोग की क्या
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