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कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप
व्यवस्था रहेगी ? इसका समाधान इस प्रकार से किया गया है कि प्राणी अपने अशुभ कर्म का फल नहीं चाहता, यह ठीक है, पर यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि चेतन आत्मा के संसर्ग से अचेतन कर्म में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे कर्म अपने शुभाशुभ फल को नियत समय पर स्वयं ही प्रकट कर देता है । जैन-दर्शन यह नहीं मानता, कि जड़ कर्म चेतन के संसर्ग बिना भी फल देने में समर्थ है । कर्म स्वयं ही अपना फल प्रदान करने का सामर्थ्य रखता है । प्राणी जैसा भी कर्म करते हैं, उनका फल उन्हें उन्हीं कर्मों द्वारा स्वतः मिल जाता है । जिस प्रकार जीभ पर मिर्च रखने के बाद उसकी तिक्तता का अनुभव स्वतः होता है । व्यक्ति के न चाहने से मिर्च का स्वाद नहीं आए, यह नहीं हो सकता । उस मिर्च के तीखेपन का अनुभव कराने के लिए किसी अन्य चेतन आत्मा की भी आवश्यकता नहीं पड़ती । यही बात कर्म-फल भोगने के विषय में भी समझ लेनी चाहिए । इस सम्बन्ध में बौद्ध साहित्य में भी बहुत कुछ कहा गया है । मिलिन्द और नागसेन
राजा मिलिन्द स्थविर नागसेन से पूछता है, कि भन्ते ! क्या कारण है, कि सभी मनुष्य समान नहीं होते ? कोई कम आयु वाला, कोई दीर्घ आयु वाला, कोई बहुत रोगी, कोई निरोग, कोई भद्दा, कोई बड़ा सुन्दर, कोई प्रभाव हीन, कोई प्रभावशाली, कोई निर्धन, कोई धनी, कोई नीच कुल वाला कोई उच्चकुल वाला, कोई मूर्ख, और कोई विद्वान क्यों होते हैं ? उक्त प्रश्नों का उत्तर स्थविर नागसेन ने इस प्रकार दिया है-राजन् ! क्या कारण है कि सभी वनस्पति एक जैसी नहीं होती । कोई खट्टी, कोई नमकीन, कोई तीखी, कोई कड़वी, कोई कसैली और कोई मीठी क्यों होती है ? मिलिन्द ने कहा-मैं समझता हूँ, कि बीजों के भिन्न-भिन्न होने ही से वनस्पति भी भिन्न-भिन्न होती है । नागसेन ने कहा-राजन् ! जीवों की विविधता का कारण भी उनका अपना कर्म ही होता है । सभी जीव अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं । सभी जीव अपने कर्मों के अनुसार ही नानागति और योनियों में उत्पन्न होते हैं । राजा मिलिन्द और नागसेन के इस सम्वाद से भी यही सिद्ध होता है, कि कर्म अपना फल स्वयं ही प्रदान करता है । 'मिलिन्द-प्रश्न' एक बौद्ध ग्रन्थ है । उसमें यह सम्वाद दिया गया है ।
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