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कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप
चुके थे और न जाने कितनी माला जाप चुके थे । परन्तु उनके जीवन में शान्ति और सन्तोष कभी नहीं आया । धन में और परिजन में उनकी बड़ी तीव्र आसक्ति थी । एक दिन जब कि वे सामायिक करके बैठे हुए थे, तो इन्होंने मेरे से पूछा- “महाराज जी ! आप बड़े ज्ञानी हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं, आप यह बतलाइए, कि मैं भव्य हूँ अथवा अभव्य हूँ !" मैंने अपने मन में सोचा-“यह क्या प्रश्न है ? यह प्रश्न तो साधना के प्रारम्भ में ही हल हो जाना चाहिए था ।" मैंने उस वृद्ध श्रावक से कहा-"जब तुम्हारे जीवन में आध्यात्मिक पुरुषार्थ जागा, जब तुम्हारे जीवन में संसार की वासना को दूर करने की भावना जागी और जब तुम्हारे जीवन में भगवान के सिद्धान्तों पर आस्था जागी, तभी यह समझ लेना चाहिए था, कि मैं भव्य हूँ, अभव्य नहीं हूँ । यदि तुम्हारे मन में भगवान के वचनों में आस्था है, प्रशम भाव है और कषाय का उपशम भाव है, तो समझलो, कि तुम भव्य हो, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । इसके विपरीत यदि इतनी लम्बी साधना के बाद भी तुम्हारे जीवन में यह सब कुछ नहीं है, तो तुम अभव्य हो । भव्य-अभव्य का निर्णय कोई दूसरा नहीं कर सकता, स्वयं अपनी आत्मा. ही कर सकती है । मैं भव्य हूँ, अथवा अभव्य हूँ, यह जानने से पहले, यह जानो, कि मेरे जीवन में शान्ति और सन्तोष आया है अथवा नहीं । अन्तश्चेतना को जगाने का प्रयत्न करो । शून्य मन से की जाने वाली साधना वस्तुतः साधना ही नहीं है ।"
कुछ विचारक इस प्रकार भी सोचा करते हैं, कि कहाँ अनन्त जन्मों के अनन्त कर्म और कहाँ इस छोटे से जीवन की छोटी-सी साधना । भला, अनन्त जीवन के अनन्त कर्म एक जीवन में कैसे किए जा सकते हैं ? जो लोग इस प्रकार सोचा करते हैं, मेरे विचार में उन लोगों के सोचने का यह स्वस्थ तरीका नहीं है । मैं पूछता हूँ, आपसे कि किसी पर्वत की एक ऐसी गुफा है, जिसमें हजारों वर्षों से अन्धकार रह रहा है, किन्तु ज्यों ही उस गुफा में दीपक की ज्योति जलाई, कि हजारों वर्षों का अन्धकार एक क्षणमात्र में ही विलुप्त हो जाता है । जरा विचार तो कीजिए, कहाँ हजारों वर्षों का अन्धकार और कहाँ एक नन्हीं-सी दीपक-ज्योति । वस्तुतः जैसा, कि मैंने अभी आपको पहले कहा था, कि
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