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________________ समाज और संस्कृति के पुरुषार्थ को जागृत करने की आवश्यकता है । अन्धकार को नष्ट करने के लिए शस्त्र लेकर उससे लड़ने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि प्रकाश को जागृत करने की ही आवश्यकता है । प्रकाश को जागृत कर दिया, तो अन्धकार स्वयं ही नष्ट हो गया । प्रकाश की सत्ता के समक्ष अन्धकार की सत्ता खड़ी नहीं रह सकती । यही बात कर्म और आत्मा के पुरुषार्थ के सम्बन्ध में भी है । आत्मा के पुरुषार्थ को जागृत करो । यही सबसे बड़ी साधना है और यही कर्म विमुक्ति का मूल कारण है ।। कुछ साधक इस प्रकार के हैं, जो कर्मों को बलवान मानकर चलते हैं और अपनी आत्मा की शक्ति को भूलकर कर्म-शक्ति के सामने झुक जाते हैं । वे अपनी साधना में हताश और निराश हो जाते हैं । एक ओर वे साधना भी करते जाते हैं और दूसरी ओर वे कर्म की शक्ति का रोना भी रोते जाते हैं । यदि आपके मन में यह दृढ़ विश्वास है, कि आत्मा दुर्बल है, वह कुछ नहीं कर सकती । कर्म ही बलवान है, कर्म में ही अनन्त शक्ति है, तो आप हजारों जन्मों की साधना से भी कर्मों से विमुक्त नहीं हो सकते । यह बड़ी विचित्र बात है, कि हम साधना तो करें, किन्तु साधना की अनन्त शक्ति में हमारा विश्वास न हो । यह तो वही बात हुई, कि हम भोजन करके किसी दूसरे से यह पूछे, कि हमारी भूख कब मिटेगी और पानी पीकर यह पूछे, कि हमारी प्यास कब मिटेगी ? साधना करके यह पूछना, कि मेरी विमुक्ति कब होगी ? यह एक विचित्र प्रश्न है । इस प्रकार का प्रश्न उसी आत्मा में उठता है, जिसे अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं होता । एक साधक की आत्मा में इस प्रकार का दृढ़ विश्वास जागृत होना ही चाहिए, कि काम, क्रोध आदि विकल्प चाहे कितने ही प्रबल क्यों न हों, पर अन्त में, मैं उन पर विजय प्राप्त कर लूँगा । आत्मा का यह संकल्प ही, आत्मा की सबसे बड़ी शक्ति है और सबसे बड़ा जागरण है । आत्मा का जागरण ही हमारी साधना का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए । मुझे एक बार एक वयोवृद्ध श्रावक से बातचीत करने का अवसर मिला । वह एक बहुत बड़े साधक थे । सम्भवतः मेरे जन्म-काल से भी पहले ही वे साधना-मार्ग पर चल पड़े थे । उस समय मैं वयस्क था और वे वयोवृद्ध थे । न जाने वह अपने जीवन में कितनी सामायिक कर चुके थे, कितने व्रत और उपवास कर चुके थे, कितने प्रतिक्रमण कर १८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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