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मन ही साधना का केन्द्र - बिन्दु है
उनके जीवन का उत्थान और कल्याण कभी नहीं हो सकता । वे लोग प्रभु के प्रेमी नहीं हैं, प्रभु के द्वेषी हैं, क्योंकि भगवान का जीवन अधर्म स्वरूप नहीं है । प्रभु अपने नाम की माला जपने से प्रसन्न नहीं होता, प्रभु को प्रसन्न करने का एक ही उपाय है— उनके बताए मार्ग पर चलना, आत्मा के अन्दर परमात्मा की तलाश करना, अपने निज में ही जिनत्व को प्राप्त करने का प्रयत्न करना । सब कर्म छोड़कर एकान्त में बैठकर दो चार माला फेर लेना ही सत्व गुण नहीं है । सत्वगुण यह है, कि सब कुछ करके भी उसके फल से अलिप्त रहे । वस्तुतः यही सात्विक गुण युक्त मन का यथार्थ लक्षण है ।
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भारतीय साहित्य में और विशेषतः योग-दर्शन में मन की वृत्तियों का बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया गया है । मन की वृत्तियों का सुन्दर विश्लेषण करने का अभिप्राय यही है, कि साधक अपने मन के स्वरूप को समझ सके । प्रत्येक साधक को मन का स्वरूप समझना चाहिए, क्योंकि हमारी अध्यात्म साधना का मूल - केन्द्र बिन्दु हमारा मन ही है । जिस मन को साधना है, उसके स्वरूप का परिबोध भी आवश्यक है, अन्यथा हम उसे साध न सकेंगे ।
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