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समाज और संस्कृति
सब कुछ करता है, पर सब कुछ करके भी उस सब कुछ के फल से विरक्त ही रहना चाहता है । वह प्रभु का स्मरण करता है, किन्तु प्रभु से कुछ मांगता नहीं है । परिवार, समाज और राष्ट्र को सब कुछ देकर भी, वह उसमें से कुछ भी पाने की आकांक्षा नहीं रखता । प्रभु के नाम की दो चार माला फेर कर और उसके बदले में संसार का वैभव मांगने की इच्छा उसके मन में कभी नहीं उठती । वह अध्यात्म - जीवन की उस बुलन्दी पर पहुँच जाता है, जहाँ पहुँचकर कुछ पाने की अभिलाषा ही शेष नहीं रह पाती । सत्वगुणी मन सब कुछ देता है, लेता कुछ नहीं है । देकर लेने की आसक्ति ही सब दुःख और क्लेशों का मूल है एक मात्र कर्त्तव्य - बुद्धि से कर्म करना ही सात्विक मन की पहचान है । वह संसार में रहकर परिवार और समाज के लिए सब कुछ करता है, किन्तु सब कुछ करके भी, सब कुछ करने के अहंकार को वह अपने मन में उत्पन्न नहीं होने देता । सात्विक मन विकल्प और प्रपंचों से दूर हटकर शान्ति और निराकुलता की अनुभूति करता है । सात्विक मन सदा प्रशान्त, प्रसन्न और आनन्दमय रहता है ।
भारत के प्राचीन वैदिक साहित्य में इस सम्बन्ध में एक बहुत ही सुन्दर श्लोक कहा गया है, जिसमें कहा है कि
“ प्रविहाय निजं कर्म कृष्ण कृष्णेति वादिनः । ते हरे द्वेषिणः पापा: धर्मार्थं जन्म यद्हरेः ।। "
इसका भाव यह है, कि जो लोग अपने कर्त्तव्य कर्म को छोड़कर अथवा अपने कर्त्तव्य को भूलकर, केवल कृष्ण - कृष्ण रटते रहते हैं, वे छली हैं और दम्भी हैं, क्योंकि उनकी जिह्वा पर तो कृष्ण का नाम रहता है, किन्तु उनके मन में और उनके कर्म में कृष्ण नहीं होता । जिन व्यक्तियों के मन में कृष्ण नहीं और जिनके कर्म में कृष्ण नहीं, उन लोगों को इस श्लोक में, कृष्ण का भक्त नहीं कहा गया है, बल्कि उन्हें कृष्ण का विद्वेषी और पापात्मा कहा गया है । कृष्ण का जन्म तो कर्त्तव्य-बुद्धि से कर्म करने के लिए था, परन्तु वे लोग कर्त्तव्य को भूलकर और कर्म की अवहेलना करके कृष्ण के जीवन की अवहेलना करते हैं । जो व्यक्ति निष्क्रिय है और जो व्यक्ति कर्मशील नहीं हैं, वह व्यक्ति चाहे कृष्ण-कृष्ण पुकारें, बुद्ध-बुद्ध पुकारें और चाहे महावीर के नाम की रट लगाते रहें,
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