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जीवन की क्षण-भंगुरता
दिया, कि हम आपको नहीं जानते । वह बूढ़ा वैष्णव सन्त सन्तों के इन्कार को सुनकर खिल खिलाकर हंस पड़ा और एक मधुर मुस्कान के साथ बोला- "आश्चर्य है, आप लोग मुझ चिर-परिचित को भी नहीं जानते ।" इतने में मैं भी उन सबके समीप पहुँच चुका था । मैंने आगे बढ़कर उस वैष्णव सन्त से कहा--"ये लोग आपको नहीं जानते, न जानें, किन्तु मैं आपको जानता हूँ।" वह बूढ़ा सन्त बोला-"कैसे जानते हो ?" मैंने कहा कि-"इसमें जानने की क्या बात है ? मैं भी आत्मा हूँ और आप भी आत्मा हैं । आत्मा, आत्मा को न जाने यह कैसे सम्भव हो सकता है ?" वह बूढ़ा सन्त गद्गद हो गया और मुझसे लिपट गया । आत्म-विभोर होकर वह कहने लगा—“तेरी और मेरी पहचान सच्ची है । इन सबमें तू ही सच्चा साधक है और जो सच्चा साधक होता है, वही आत्मा को पहचानता है । जो केवल शरीर में ही अटक जाता है, वह इस अजर-अमर आत्मा को कैसे पहचान सकता है ।"
बात यह है, कि तन की पहचान सरल है, किन्तु आत्मा की पहचान कठिन है । हम परिचय चाहते हैं शरीर का, हम परिचय चाहते हैं इन्द्रियों का. और हम परिचय चाहते हैं वैभव और विभूति का । फिर भला आत्मा का परिचय हो तो कैसे हो ? भोग और विलास तथा वैभव और विभूति के इस झुरमुट में हम इतने को चुके हैं, कि हमें अपने गन्तव्य मार्ग का ही परिबोध न रहा । गन्तव्य पथ को भूल जाना ही हमारे जीवन की सबसे विकट और सबसे भयंकर विडम्बना है । गृहस्थ होकर रहें, तो क्या और साधु बनकर जिए तो क्या ? जब तक आत्मबोध नहीं होता, तब तक कुछ नहीं है । आत्म-परिबोध के अभाव में हमने साधु बनकर क्या छोड़ा ? आप कह सकते हैं, कि अपना परिवार छोड़ दिया । माना कि अपना परिवार छोड़ा, किन्तु अपनी सम्प्रदाय का परिवार अपना लिया । फिर छोड़कर भी क्या छोड़ा ? अपनी धन-सम्पत्ति को छोड़ा, पर मान और प्रतिष्ठा के धन को समेट कर बैठ गए । अपने वैभव का अहंकार छोड़ा, किन्तु अपने ज्ञान के अहंकार में उलझ गये । मेरे कहने का मतलब यह है, कि एक जाल टूटा तो दूसरे जाल में फंस गये । एक बन्धन से निकले और दूसरे बन्धन में बंध गए । मैं इस प्रकार की साधना को साधना नहीं कह सकता । मैं इस प्रकार के साधना के प्रयत्नों को विमुक्ति का प्रयत्न नहीं मानता । राग में पकड़ने की शक्ति है, जब तक वह रहेगा, किसी को पकड़ता ही रहेगा । माँ-बाप
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