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________________ समाज और संस्कृति स्थिर नहीं रह सकता । चक्रवर्ती का ऐश्वर्य और तीर्थकर की विभूति, देवताओं की समृद्धि तथा मनुष्यों का वैभव कभी स्थिर नहीं रहा है और कभी स्थिर नहीं रहेगा, फिर एक साधारण मनुष्य की साधारण धन-सम्पत्ति स्थिर कैसे रह सकती है ! इस जीवन में जितना सम्बन्ध है, वह सब शरीर का है, आत्मा का तो सम्बन्ध होता नहीं है । इस जीवन में जो कुछ प्रपंच है, वह सब शरीर का है, आत्मा तो प्रपंच-रहित होता है । प्रपंच और विकल्प तन-मन के होते हैं, आत्मा के नहीं, किन्तु अज्ञान - वश हमने इनको अपना समझ लिया है और इसी कारण हमारा यह जीवन दुःखमय एवं क्लेशमय है । जीवन के इस दुःख और क्लेश को क्षण भंगुरता और अनित्यता के उपदेश से दूर किया जा सकता है । क्योंकि जब तक भव के विभव में अपनत्व - बुद्धि रहती है, तब तक वैभव के बन्धन से विमुक्ति कैसे मिल सकती है । पर में स्वबुद्धि को तोड़ने के लिए ही, अनित्यता का उपदेश दिया गया है । एक बार की बात है । मैं राजस्थान से गुजरात की ओर विहार-यात्रा कर रहा था । मार्ग में आबू पड़ता था । किसी भी इतिहास - प्रसिद्ध स्थान को देखने की भावना मेरे मन में उठा करती है । यद्यपि आबू जाने में और वहाँ से लौटने में काफी चक्कर लगता था, फिर भी आबू देखने का संकल्प कर ही लिया । मेरा स्वास्थ्य उन दिनों में ठीक न था, फिर पहाड़ की चढ़ाई करनी थी । अतः साथ के साथी सन्तों ने मेरे जाने के संकल्प का समर्थन नहीं किया । फिर भी मैंने अपने संकल्प में शैथिल्य नहीं आने दिया और आबू की विहार- यात्रा प्रारम्भ हो गई । जब हम आबू की चढ़ाई चढ़ रहे थे, तब मार्ग में एक वैष्णव सन्त मिला । बहुत बूढ़ा और साथ ही बहुत दुबला पतला । उसकी लम्बी दाड़ी और लम्बी जटा, उसकी सौम्यता की अभिव्यक्ति कर रही थी । जटा के केश भी रजत, दाड़ी के बाल भी श्वेत और हाथों के रोम भी सफेद थे । यह सब कुछ होने पर भी उसके शरीर में स्फूर्ति थी और उसके कदमों में बल था । वह तेजी के साथ बढ़ा चला आ रहा था । कुछ सन्त जो मुझसे आगे चल रहे थे, उन्हें देखकर वह बोला - नमस्कार, नमस्कार । वह बूढ़ा सन्त सन्तों से कहने लगा- 'क्या आप मुझे जानते हैं ?' एक सन्त ने इन्कार किया, तो दूसरे से पूछा और दूसरे ने इन्कार किया तो तीसरे से पूछा । इस प्रकार सभी सन्तों से उसने एक ही प्रश्न पूछा, कि क्या आप मुझे जानते हैं ? किन्तु सभी सन्तों ने इन्कार कर १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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