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जीवन की क्षण-भंगुरता
शरीर अनित्य है, धन और वैभव भी शाश्वत नहीं है, मृत्यु सदा सिर पर मँडराता रहता है । न जाने कब मृत्त्यु आकर पकड़ ले, अतः जितना हो सके, धर्म कर लेना चाहिए । ____ मैं आपसे अनित्यता और क्षण भंगुरता की बात कह रहा था । भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन का यह अटल विश्वास है, कि मौत हर इन्सान के पीछे छाया की तरह चल रही है । जिस दिन जन्म लिया था, उसी दिन से इन्सान के पीछे मौत लग चुकी थी । न जाने वह कब झपट ले और कब हमारे जीवन को समाप्त कर दे । जीवन का यह खिला हुआ फूल न जाने कब संसार की डाली से झड़ कर अलग हो जाए । जीवन, नदी के उस प्रवाह के तुल्य है, जो निरन्तर बहता ही रहता है । भगवान महावीर ने इस मानव जीवन को अनित्य और क्षण भंगुर बताते हुए कहा है, कि यह जीवन कुश के अग्रभाग पर स्थित जल-बिन्दु के समान है । मरण के पवन का झोंका लगते ही यह धरा-शायी हो जाता है । जिस शरीर पर मनुष्य अभिमान करता है, वह शरीर भी विविध प्रकार के रोगों से आक्रान्त है । पीडाओं और व्यथाओं का निधि है । न जाने कब और किस समय और कहाँ पर इसमें से रोग फूट पड़े ? यह सब कुछ होने पर भी, भारतीय दर्शन और भारतीय संस्कृति के उद्गाता उस दुःख का केवल रोना रोकर ही नहीं रह गए । क्षण-भंगुरता और अनित्यता का उपदेश देकर ही नहीं रह गए । केवल मनुष्य के दुःख की बात कहकर और अनिन्यता की बात कहकर तथा क्षण-भंगुरता की बात कहकर, निराशा के गहन गर्त में लाकर उसने जीवन को धकेल नहीं दिया, बल्कि निराश, हताश और पीड़ित जीवन को उसने आशा का सुन्दर उपदेश भी दिया है । उसने कहा कि आगे बढ़ते जाओ । जीवन की क्षण-भंगुरता और अनित्यता हमारे जीवन का आदर्श और लक्ष्य नहीं है । अनित्यता और क्षण-भंगुरता का उपदेश केवल इसीलिए है, कि हम जीवन में और धन वैभव में आसक्त न बनें । जब जीवन को और उसके सुख-साधनों को अनित्य और क्षण भंगुर मान लिया जाएगा, तब उनमें आसक्ति नहीं जगेगी । आसक्ति का न होना ही भारतीय संस्कृति की साधना का मूल लक्ष्य और चरम उद्देश्य है ।
भारतीय संस्कृति में जीवन के दो रूप माने गये हैं मर्त्य-जीवन और अमर्त्य-जीवन । इस जीवन में कुछ वह है, जो अनित्य है और जो
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