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समाज और संस्कृति
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क्षण भंगुर है । और इस जीवन में वह भी है, जो अमर्त्य है, जो अमृत है और जो अमर है । जीवन का मर्त्य भाग क्षण-प्रतिक्षण नष्ट होता जा रहा है, समाप्त होता जा रहा है । जिस प्रकार अञ्जलि में भरा हुआ जल बूंद-बूंद करके रिसता चला जाता है, उसी प्रकार जीवन-पुज में से जीवन के क्षण निरन्तर खिरते रहते हैं । जिस प्रकार एक फूटे घड़े से बूंद-बूंद करके जल निकलता रहता है और कुछ काल में घड़ा खाली हो जाता है, मानवीय जीवन की भी यही स्थिति है और यही दशा है । जीवन का मर्त्य-भाग अनित्य है, क्षण भंगुर है और विनाशशील है । यह तन अनित्य है, यह मन अनित्य है, ये इन्द्रियाँ क्षण भंगुर हैं तथा धन और सम्पत्ति, चंचल हैं । परिजन और परिवार आज है और कल नहीं । घर की लक्ष्मी उस बिजली की रेखा के समान है, जो चमक कर के क्षण भर में विलुप्त हो जाती है । जरा सोचिए तो, इस अन्त-हीन और सीमा-हीन संसार में किसकी विभूति नित्य रही है और किसका ऐश्वर्य स्थिर रहा है ? रावण का परिवार कितना विराट था । दुर्योधन का परिजन और परिवार कितना विस्तृत एवं व्यापक था । उन सब को ध्वस्त होते और मिट्टी में मिलते क्या देर लगी ? जिस प्रकार जल का बुद्-बुद जल में जन्म लेता है और जल में ही विलीन हो जाता है, उसी प्रकार धन, वैभव और ऐश्वर्य मिट्टी में से जन्म पाता है और अन्त में मिट्टी में ही विलीन हो जाता है । भारतीय संस्कृति का यह वैराग्य रोने
और विलखने के लिए नहीं है, बल्कि इसलिए है, कि जीवन के मर्त्य भाग में हम आसक्त न बनें और जीवन के किसी भी मर्त्य रूप को पकड़कर हम न बैठ जाएँ । सब कुछ पाकर भी और सबके मध्य रहकर भी हम समझें, कि यह हमारा अपना रूप नहीं है । यह सब आया है और चला जाएगा । जो कुछ जाता है, वह जाने के लिए ही आता है, स्थिर रहने के लिए और टिकने के लिए नहीं । भारतीय दर्शन और भारतीय संस्कृति का यह अनित्यता और क्षण-भंगुरता का उपदेश जीवन को जागृत करने के लिए है, जीवन को बन्धनों से विमुक्त करने के लिए है। __मैं आपसे जीवन के दो रूपों की चर्चा कर रहा था । जीवन के. मर्त्य भाग की चर्चा आपने सुनी है । जीवन का दूसरा रूप है, अमर्त्य, अमृत और अमर । जीवन के अमर्त्य भाग को आलोक और प्रकाश कहा जाता है । अमृत का अर्थ है—कभी न मरने वाला । अमर का अर्थ है जिस पर मृत्यु का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है । वह क्या तत्व
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