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जीवन की क्षण-भंगुरता
भारतीय दर्शन और भारतीय संस्कृति में दुःख और क्लेश तथा अनित्यता और क्षण भंगुरता के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा गया है और बहुत कुछ लिखा गया है । यही कारण है, कि पाश्चात्य विद्वान भारतीय दर्शन की उत्पत्ति अनित्यता और दुःख में से ही मानते हैं । क्या दुःख और अनित्यता भारतीय दर्शन का मूल हो सकता है ? यह एक गम्भीर प्रश्न है, जिस पर भारत की अपेक्षा भारत से बाहर अधिक विचार किया गया है । जीवन अनित्य है और जीवन दुःखमय है, इस चरम सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता । सम्भवतः पाश्चात्य जगत के विद्वान भी इस सत्य को ओझल नहीं कर सकते । जीवन को अनित्य, दुःखमय, क्लेशमय, क्षण-भंगर मानकर भी भारतीय दर्शन आत्मा को एक अमर और शाश्वत तत्त्व मानता है । आत्मा को अमर और शाश्वत मानने का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता, कि उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न होता हो । परिवर्तन जगत का एक शाश्वत नियम है । चेतन और अचेतन दोनों में ही परिवर्तन होता है । इतनी बात अवश्य है, कि जड़-गत परिवर्तन की प्रतीति शीघ्र हो जाती है, जबकि चेतन-गत परिवर्तन की प्रतीति शीघ्र नहीं होने पाती । यदि चेतन में परिवर्तन न होता, तो आत्मा का दुःखी से सुखी होना और अशुद्ध से शुद्ध होना, यह कैसे सम्भव हो सकता था । जीवन और जगत में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है । दर्शन-शास्त्र का यह एक चरम सत्य है ।
मैं आपसे अनित्यता और दुःख की बात कह रहा था । भारतीय दर्शन अनित्य में से और दुःख में से जन्म लेता है । भगवान महावीर ने कहा है-“अणिच्चे जीव-लोगम्मि ।" यह संसार अनित्य है और क्षण भंगुर है । क्या ठिकाना है इसका ? कौन यहाँ पर अजर अमर बनकर आया है ? संसार में शाश्वत और नित्य कुछ नहीं है । यही बात बुद्ध ने भी कही है-“अणिचा संखारा ।" यह संस्कार अनित्य है और क्षण भंगुर है । विशाल-बुद्धि व्यास ने भी कहा है
“अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः, कर्तव्यो धर्म-संग्रहः ।"
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