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________________ जैन धर्म अतिवादी नहीं है में समाधि-भाव न हो, तब उस साधना को फिर भले ही वह कितनी भी उग्र, घोर और प्रचण्ड क्यों न हो, उसे धर्म नहीं कहा जा सकता । मैं आपसे कह चुका हूँ, कि तापस-युग के तापस अतिवादी साधक थे । तापसों के अतिरिक्त अन्य कुछ साधकों में भी यह अतिवाद उपलब्ध होता है । बौद्ध दर्शन में धूतांग साधक का वर्णन एक अतिवादी वर्णन है, किन्तु वहाँ कहा गया है, कि कितना भी घोर क्रियाकाण्ड क्यों न किया जाए, यदि मन में समाधि नहीं है, तो कुछ भी नहीं है । उग्र तप, घोर साधना और प्रचण्ड क्रियाकाण्ड का विधान केवल जैन धर्म में ही नहीं है, वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म में भी कठोरतम साधनाओं का और उग्रतम तपों का विधान किया गया है । जैन धर्म की अपनी विशेषता यह है, कि वह तप, साधना और क्रियाकाण्ड से पूर्व दृष्टि को महत्व देता है । सम्यक दृष्टि की अल्प साधना भी निर्जरा के लिए होती है और मिथ्या दृष्टि की घोर साधना भी बन्ध के लिए ही होती है । भगवान पार्श्वनाथ ने कर्मठ तापस को उसकी अज्ञानमूलक क्रिया को छोड़ने के लिए जो उपदेश दिया था, वह इस बात का सूचक है, कि तप और अन्य कठोर साधना से पहले दृष्टि सम्यक् बनाना परमावश्यक है । गणधर गौतम ने भी कैलाश-वासी तापसों को जो उपदेश दिया था, उसका सार भी यही है, कि तुम्हारा तप तो बहुत भयंकर है, किन्तु अभी तक, हे तापसो ! तुम्हें विवेक का प्रकाश नहीं मिला है । जब तक विवेक प्राप्त न हो, सभी प्रकार की साधना व्यर्थ है । कल्पना कीजिए, जंगल में किसी बाँबी में सांप बैठा है । कुछ अज्ञान लोग सांप को मारने के लिए बाहर में बाँबी को पीटते हैं । उसी पर प्रहार कर रहे हैं, तो क्या बाँबी को पीटने मात्र से अन्दर बैठा भयंकर विषधर मर सकता है ? बाँबी पर कितना भी प्रहार क्यों न किया जाए, उससे अन्दर बैठे सर्प का क्या बिगड़ता है ? लाठी के प्रहार बाँबी पर ‘पड़ते हैं, और अज्ञानी लोग यह समझते हैं, कि हम सांप को मार रहे हैं । बाँबी को पीटने मात्र से सांप का कुछ नहीं बिगड़ सकता है, क्योंकि वह तो अन्दर सुरक्षित बैठा है । इसी प्रकार कुछ साधक इस शरीर से लड़ते हैं, हठ और आवेश में तपस्या कर-कर के इस शरीर को कृश और दुर्बल बना डालते हैं, लेकिन इस बेचारे शरीर का क्या दोष है ? इस शरीर का पीड़न करने से क्या परिणाम निकला ? इस शरीर को आग की जलती ज्वालाओं में भी डाल दिया, तो क्या उससे आत्म-कल्याण - - ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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