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समाज और संस्कृति
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हो सकेगा ? बात यह है, कि जो वासना है, जो विकार है और जो विकल्प है, वह शरीर में नहीं है, वह शरीर के अन्दर रहने वाले मन में है । वहाँ बैठे हुए विकार रूपी सर्प को तो मारते नहीं, मारते हैं उसकी शरीर रूपी स्थूल बाँबी को । परन्तु इतने मात्र से तो वासना, विकार और विकल्प का सर्प मारा नहीं जा सकता । वह एक गुप्त स्थान में बैठा हुआ है, उस पर तो आपकी साधना की एक भी चोट नहीं लगती है, चोट लगती है शरीर पर । परन्तु याद रखिए, जब तक अन्तमन पर चोट नहीं लगेगी, तब तक उसके विकार और विकल्प दूर नहीं होंगे । मन के विकार और विकल्पों को दूर करना ही अध्यात्म-साधना का एक मात्र लक्ष्य है । उसका उपाय यही है, कि इस तन की बाँबी में बैठे मन के विषधर पर ही साधना का प्रहार किया जाए । भारतीय साधना का लक्ष्य आन्तरिक विकारों का प्रशमन है । यह तन की बाँबी और इन्द्रियाँ हमारी साधना के लक्ष्य नहीं हैं । शरीर को नष्ट करने से और शरीर को कष्ट देने मात्र से ही यदि आत्मा का कल्याण सम्भव होता, तो कैलाश पर्वत पर अतिवादी साधना करने वाले तापसों का कल्याण कभी का हो गया होता । किन्तु उस अतिवादी साधना से उनके मन के विकार और विकल्प टूटे नहीं । तमसाच्छन्न मिथ्यात्व भूमिका से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाए । गणधर गौतम के उपदेश से जब उनकी दृष्टि बदली, तब ही उन्हें केवल ज्ञान और केवल दर्शन की उपलब्धि हो सकी ।
जैन धर्म यह कहता है, कि किसी भी प्रकार की साधना करो, जप की, तप की, आचार की अथवा ध्यान की, परन्तु अपने मन के विकार और विकल्पों को दूर करने का ही प्रयत्न होना चाहिए । जो तप हमारी मन की शान्ति को भंग करता है, अथवा मन के समाधिभाव को भंग करता है, वह तप, तप नहीं है, वह साधना, साधना नहीं है । प्राचीन साहित्य में एक कथा आती है, कि एक गुरु का एक शिष्य था । वह उग्र तपस्वी और घोर तपस्वी था, लेकिन जितना बड़ा वह तपस्वी था, उससे भी अधिक वह क्रोधी था । बड़ी उग्र और घोर तपस्या कर-करके उसने अपने शरीर को तो कृश बना लिया था, किन्तु अपनी आत्मा के कषाय-भाव को वह दूर न कर सका । एक दिन वह अपने गुरु के चरणों में आया और आकर विनम्र भाव से बोला - "गुरुदेव ! उग्र और कठोर तपस्या करते-करते यह शरीर सूख गया है, अब इस शरीर में शक्ति
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