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समाज और संस्कृति
मस्तक पर सूर्य का प्रचण्ड ताप सहन करता था । उसके उक्त प्रचण्ड तप को देखकर उस समय पार्श्वनाथ जी के श्री मुख से यह वाक्य निकला
था
"अहो कष्टमहो कष्टं पुनस्तत्त्वं न ज्ञायते ।"
तप साधना में कष्ट, देह- दमन तो बहुत बड़ा है, किन्तु तत्व - बोध अभी नहीं है ।
प्राचीन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है, कि एक दिन भारतवर्ष के विशाल जंगलों में तापसों का साम्राज्य था । उनके उग्र क्रियाकाण्ड को देख कर, भगवान बुद्ध को भी बड़ा आश्चर्य हुआ था । मालूम होता है, कि अधिक से अधिक देह को कष्ट देना ही तापस लोग अपनी साधना का लक्ष्य समझते थे । मैं समझता हूँ, कि इतनी उग्रवादी और अतिवादी साधना अन्यत्र दुर्लभ है । एक मात्र क्रियाकाण्ड पर ही इन लोगों का भार था । क्रिया के साथ विवेक का महत्त्व उन्होंने नहीं समझा था । विवेक तो साधना का प्राण है । किसी भी प्रकार की साधना में यदि विवेक का प्रकाश नहीं है, तो वहाँ कुछ भी नहीं है । मुझे विचार आता है, कि जैन धर्म कठोर साधनाओं को महत्व देता है अथवा विचार और विवेक को महत्त्व देता है । भगवान महावीर ने कहा है – “पढमं नाणं तओ दया । " पहले ज्ञान और विवेक है, फिर आचार और साधना है । तप एवं साधना करना अच्छा है, किन्तु मर्यादा हीनता के रूप में अति तप और अति साधना करना अच्छा नहीं है । जैन धर्म और जैन संस्कृति में किसी भी प्रकार के अतिवाद को अवकाश नहीं है । क्योंकि अतिवाद एकान्तवाद पर आश्रित होता है और जो भी एकान्त है, वह सम्यक् नहीं हो सकता और जो सम्यक् नहीं है, वह जैन साधना का अंग नहीं बन सकता । जैन धर्म की साधना में न किसी बात का एकान्त निषेध है और न किसी बात का एकान्त विधान ही है । जैन दर्शन साधना के मूल स्रोत अनेकान्त - दृष्टि को महत्व देता है । यदि दृष्टि सम्यक् नहीं है, तो फिर कितनी भी अतिवादी साधना क्यों न हो, उससे संसार की अभिवृद्धि ही होती है । वह अतिवादी साधना मोक्ष का अंग नहीं बनती है । जैन धर्म की आचार साधना में उत्कृष्ट, उम्र और घोर शब्द का प्रयोग तो किया गया है, किन्तु अतिवाद का प्रयोग नहीं है ।
मैं आपसे साधना के विषय में विचार कर रहा था । साधना, साधना है, और उसका प्रयोजन है, जीवन की निर्मलता और पवित्रता । अतिवादी साधना से देह का पीड़न और मन की अशान्ति ही बढ़ती है । जब मन
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