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________________ जैन धर्म अतिवादी नहीं है नहीं । साधना जीवन के लिए होती है, साधना का लक्ष्य है जीवन को विमल और पवित्र बनाना और यह पवित्रता सहज भाव से होने वाली ज्ञान प्रधान अर्न्तमुख साधना से होती है । जो साधना अतमुख न होकर बहिर्मुख होती है, आत्मा-प्रधान न होकर देह-प्रधान होती है, अपनी सहज शक्ति से आगे बढ़कर अति के रूप में देह दण्ड एवं हठ-योग का रूप ले लेती है, वह अति साधना है, और वह आध्यात्मिक पवित्रता का हेतु नहीं बनती है । प्राचीन साहित्य का जब हम अध्ययन करते हैं, तब हमें ज्ञात होता है, कि भारत में किस प्रकार की हठवादी और अतिवादी साधना की जाती रही है । तापसों के जीवन का वर्णन जब हम पढ़ते हैं, तब हमें ज्ञात होता है, कि उस युग के तापस अपने आश्रमों में, जंगलों में और पर्वतों पर किस प्रकार की प्रचण्ड तपस्या करते थे । जहाँ एक ओर तापसों का प्रचण्ड तप प्रसिद्ध है, वहाँ दुसरी ओर तापसों का प्रचण्ड क्रोध भी प्रसिद्ध है । विश्वामित्र ने कितनी प्रचण्ड तपस्या की । किन्तु क्रोध भी उनका उतना ही भयंकर था । दुर्वासा ऋषि का क्रोध तो महाभारत में और प्राचीन साहित्य में प्रसिद्ध है । यदि तप का परिणाम क्रोध ही है, तो उस तप से आत्मा का हित-साधन नहीं हो सकता । तापसों की साधना का अतिवाद यह है, कि वह भयंकर से भयंकर देह-पीड़ा को एवं देह-दमन को ही धर्म समझते थे । भगवान पार्श्वनाथ के युग में और भगवान महावीर के युग में भी जिन तापसों का वर्णन उपलब्ध होता है, उससे ज्ञात होता है, कि उनका तप तो उग्र होता था, किन्तु उन्हें आत्म-बोध नहीं होता था । वर्णन किया गया है, कि कुछ तापस पानी के ऊपर आने वाले शैवाल को खाकर ही गुजारा कर लेते थे । कुछ-तापस सूखी पत्ती और सूखी घास ही खाकर तपस्या करते थे । कुछ तापस मात्र हवा खाकर ही अपना जीवन यापन करते थे । यहाँ तक वर्णन आता है, कि गाय का गोबर खाकर भी वे अपनी जीवन वृत्ति को धारण करते थे । इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ के युग के तापस घोर क्रियाकाण्डी और अतिवादी साधक थे । एक बार भगवान् पार्श्वनाथ जब कि वे राजकुमार थे, वाराणसी में गंगा तट पर आए, कमठ तापस के पास पहुँचे । कमठ अपने युग का प्रसिद्ध पंचाग्नि तापस था । वह भयंकर ग्रीष्म काल में भी अपने चारों ओर धूनी जलाकर ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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