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________________ जैन धर्म अतिवादी नहीं है दृष्टि में होता है । क्योंकि आत्मा स्वयं ही साधक है, स्वयं ही साध्य है और स्वयं साधन है । साध्य क्या है ? और मोक्ष क्या है ? आत्म-: - गुणों की परिपूर्णता । और आत्म साधना में साधन भी आत्मगुण ही होते हैं । इस दृष्टि से अपने प्रयत्न से अपने में अपने आपको खोजना ही साधना है । यह जैन दर्शन की अद्वैत दृष्टि है । वेदान्त ने भी साधना के क्षेत्र में मुख्य रूप में अद्वैत दृष्टि को ही अपनाया है । किन्तु उसका मायावाद उसे पूर्ण रूप में अद्वैत नहीं होने देता । आचार्य उमास्वाति ने अपने 'तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र' में कहा है, कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है । इसी तथ्य को बहुत पहले भगवान् महावीर ने भी अपनी वाणी में कहा था और गणधरों ने भी उसी का प्रतिपादन किया था । उसी का आधार लेकर विभिन्न युग के आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों की रचना की है । जो बात एक तीर्थंकर कहता है, वही बात अनन्त तीर्थंकर भी कहते हैं । सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के कथन में किसी प्रकार का भेद नहीं हो सकता । मोक्ष मार्ग की प्ररूपणा सब की एक है । मोक्ष - मार्ग में प्रयुक्त मार्ग का अर्थ है – कारण एवं साधन । मोक्ष तो कार्य है और उसके कारण हैं – सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । जो साधन है, वस्तुतः वही साध्य भी है, अन्तर इतना ही है, कि अपूर्ण अवस्था में वे साधन हैं और पूर्ण अवस्था में वे ही साध्य बन जाते हैं, साध्य और साधन में अद्वैत दृष्टि से किसी प्रकार का मौलिक भेद नहीं हो सकता । मैं आपसे यह कह रहा था, कि जब तक आत्मगुणों का पूर्ण विकास नहीं होता है, तब तक वे साधन हैं और जब पूर्ण विकास हो जाता है, तो वे ही गुण साध्य बन जाते हैं । दूसरी बात यह है, कि गुण कभी अपने गुणी से भिन्न नहीं होता । इसका अर्थ यह हुआ, कि जो दर्शन है, वही आत्मा है, जो ज्ञान है, वही आत्मा है और जो चारित्र है वही आत्मा है । आत्मा, उसका साध्य और उसके साधन में अद्वैत दृष्टि है, किन्तुं व्यवहार में हम भेद - दृष्टि को आधार बनाकर ही चलते हैं । जब साधक निश्चय दृष्टि में पहुँचता है, तब वहाँ पर उसे किसी भी प्रकार का भेद दृष्टिगोचर नहीं होता है । मुक्ति क्या वस्तु है ? मुक्ति का अर्थ है— बन्धनों से छुटकारा । जितने बन्धन हैं, उतना ही अधिक संसार होता है, और जैसे-जैसे बन्धनों का अभाव होता जाता है, वैसे-वैसे मुक्ति प्राप्त होती जाती है । बन्धनों Jain Education International For Private & Personal Use Only १०६ www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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