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समाज और संस्कृति
का अभाव ही मोक्ष है । सम्यक् दर्शन के होने से मिथ्यात्व का बन्धन ट्रट जाता है । सम्यक ज्ञान के आते ही अज्ञान का बन्धन टूट जाता है । सम्यक चारित्र के होते ही राग द्वेष के बन्धन टूटने लगते हैं । साधक जैसे-जैसे अपनी साधना में विकास करता है, वह बन्धनों से मुक्त होता जाता है ।
कल्पना कीजिए, एक बच्चा पढ़ने जाता है और वह पहली कक्षा पार करता है, फिर धीरे-धीरे वह दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं आदि कक्षाओं को पार करता हुआ निरन्तर आगे बढ़ता जाता है । एक दिन वह अपनी कक्षाओं को पार करते हुए ऊँची से ऊँची शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो जाता है । उस समय वह विद्वान बन जाता है और दूसरों को पढ़ाने भी लगता है । जो व्यक्ति एक दिन स्वयं पढ़ने वाला था, तो एक दिन वह दूसरों को पढ़ाने भी लगता है । इसका अर्थ यह है, कि जब तक वह अल्पज्ञ था वह स्वयं छात्र था और जैसे-जैसे उसका ज्ञान बढ़ता गया, वह अध्यापक हो गया । यही स्थिति साधना के सम्बन्ध में भी है । एक दिन स्वरूप की साधना प्रारम्भ करने वाला साधक साधना के पथ पर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता है, और फिर आगे चलकर वही व्यक्ति स्वरूप की पूर्ण साधना कर लेता है । इस प्रकार हम देखते हैं, कि यह साधक चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक् दृष्टि बनता है, पञ्चम गुणस्थान में देशव्रती बनता है । षष्ठ गुणस्थान में सर्वव्रती बनता है, सप्तम गुणस्थान में अप्रमत्त होकर तेजी के साथ आगे बढ़ता हुआ तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर वह पूर्ण वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वदशी बन जाता है । साधना का यही क्रम है । गृहस्थ धर्म और साधु धर्म की बाह्य मर्यादा का भेद केवल पञ्चम और षष्ठ गुणस्थान तक ही रहता है, आगे के सभी गुणस्थानों में फिर साधना अन्तः प्रवाहित रहती है । अतः उसका एक रूप ही रहता है । इसी दृष्टि से मैं आपसे कह रहा था, कि हमारी साधना जब तक अपूर्ण है, तभी तक उसमें साध्य और साधन का भेद रहता है । साधना की परिपूर्णता होते ही साध्य और साधन का भेद भी मिट जाता है, फिर तो जो साध्य है, वही साधन है और जो साधन है, वही साध्य है । जैन दर्शन की यही निश्चय दृष्टि है और जैन दर्शन की यह अद्वैत दृष्टि है ।
अहिंसा, तो अहिंसा है । वह अनन्त भी है और शान्त भी है । साधना की अवस्था में वह शान्त है और साध्य की अवस्था में पहुंचकर
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