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________________ समाज और संस्कृति जाती है, जीवन - विनाश के लिए नहीं । एकान्तवाद में विनाश ही रहता है, विकास नहीं । मैं आपसे साधना की बात कर रहा था । आध्यात्मिक साधना, चाहे वह गृहस्थ की साधना हो और चाहे वह साधु की साधना हो, जो भी साधना है, उसमें सर्वत्र एक ही प्रश्न सामने आता है और जब तक उसका समाधान नहीं हो जाता है, तब तक साधना में विमलता और विशुद्धता आती नहीं है । प्रश्न यह है, कि साधक जो कुछ भी कर रहा है, गृहस्थ धर्म का पालन कर रहा है अथवा साधु धर्म का पालन कर रहा है, परन्तु देखना यह है, कि उसमें उसे समरसीभाव उपलब्ध हुआ अथवा नहीं ? यदि समरसीभाव उत्पन्न हो गया है तो वह साधना ठीक है, अन्यथा वह साधना काय - क्लेशमात्र है । गृहस्थ धर्म और साधु धर्म, धर्म वस्तुतः अलग-अलग नहीं होता, वह तो एक और अखण्ड ही होता है, फिर भी पात्र की योग्यता के अनुसार ही उसका शास्त्रों में विधान एवं प्रतिपादन किया गया है । शास्त्रों में जहाँ कहीं भी गृहस्थ धर्म अथवा साधु धर्म का प्रतिपादन किया गया है, तो वहाँ व्यवहार दृष्टि से ही उसका कथन किया गया है, किन्तु निश्चय दृष्टि में साधना का मार्ग अलग-अलग नहीं है । निश्चय दृष्टि में साधना का मार्ग एक ही है । यह बात दूसरी है, कि एक साधक अपने साधना - पथ पर तेज कदम से आगे बढ़ रहा है, दूसरा हल्के कदम से उस पर चल रहा है । साधना में पात्र की शक्ति के अनुसार तीव्रता और मन्दता का भेद रह सकता है, किन्तु ध्येय-भेद और लक्ष्य भेद नहीं हो सकता । आगम - शास्त्र में दोनों दृष्टियों का उल्लेख उपलब्ध होता है —–व्यवहार दृष्टि और निश्चय दृष्टि । दोनों को समझना आवश्यक है, इसमें किसी प्रकार का मतभेद नहीं है । परन्तु इस तथ्य को नहीं भूल जाना चाहिए, कि निश्चय दृष्टि ही परमार्थ दृष्टि है । व्यवहार - भाषा में मार्ग अलग-अलग होते हुए भी निश्चय भाषा में मार्ग एक ही है । साधु जिस लक्ष्य को लेकर साधना प्रारम्भ करता है, गृहस्थ की साधना का प्रारम्भ भी उसी लक्ष्य को लेकर होता है । लक्ष्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है । साध्य एक होने पर भी और साधना एक होने पर भी, चलने की गति में अन्तर अवश्य माना गया है । वस्तुतः साधना, साधना है । वह एक अखण्ड तत्त्व है । - साधना में दो दृष्टियाँ रहती हैं- द्वैत दृष्टि और अद्वैत दृष्टि । साधक की साधना का प्रारम्भ द्वैत दृष्टि से होता है, किन्तु उसका पर्यवसान अद्वैत १०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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